सोमवार, 22 नवंबर 2021

नार्वे में प्रवासी बाल साहित्य - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'



तस्वीर में बायें से बीरेन्द्र शुक्ल, शरद आलोक, उत्तर प्रदेश के विधान सभा अध्यक्ष ह्रदय नारायण दीक्षित, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गुजरात  एवं  वर्तमान मन्त्री गुजरात राजेंद्र त्रिवेदी स्पाइल पत्रिका दर्शाते हुए. 

नार्वे में प्रवासी बाल साहित्य
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'  सम्पादक, स्पाइल-दर्पण, ओस्लो, नार्वे

प्रवासी साहित्यकारों ने कम मात्रा में बाल साहित्य का सृजन किया है। आइये बाल साहित्य का अवलोकन करें।
बाल साहित्य में लोककथाओं का बहुत महत्त्व है।  कविताओं, चित्रकथा और कथाओं और बतकही के माध्यम से भी बाल साहित्य की रचना की गयी है।

भारत और विदेशों में बाल साहित्य लोककथा के रूप में आज भी बहुत लोकप्रिय है।
लोककथायें एक स्थान से दूसरे स्थानों, देशों में सैर करती रही हैं यही कारण है कि अनेक लोककथायें अनेक देशों में अपने आवरण में मिलती है।

बाल साहित्‍य का उद्देश्‍य बच्चों का मनोरंजन करना ही नहीं वरन उन्‍हें जीवन की सच्‍चाइयों से परिचित कराना होता है। आज की कथाओं में जहाँ  लोकोक्तियाँ: बालक-बालिकायें यदि बिल्ली के रास्ते काटने, चुप रहो नहीं तो बाबा आएगा और ले जाएगा आदि-आदि पढ़ने से उसी तरह बच्चे डरपोक होंगे और उसी के अनुरुप उनका चरित्र निर्माण होगा।  वहीं पंचतंत्र और भी कथायें हमारा मनोरंजन के साथ-साथ चरित्र का निर्माण भी करती हैं.

रामचरित मानस जैसे लोक-ग्रंथों में अनेक संवाद हमको उत्कृष्ट बाल साहित्य मनोरंजक और ज्ञानप्रद लगते हैं जिनमें परशुराम लक्षमण संवाद और अंगद रावण संवाद आदि है अनेक उदाहरण हैं।

अब हमको बच्चों को प्रश्न पूछने में सहयोग देना है और उनकी हर जिज्ञासा और प्रश्न का उत्तर देना होगा वरना बच्चों में आत्मनिर्भरता कम होगी। बच्चों के प्रश्नों के उत्तर न देने के कारण स्वाधीनता, आत्म निर्भरता भी उस हद तक नहीं आ पाएगी जिसके लिए उनका अधिकार है। श्रमदान से दोबारा निर्माण का लें ये घर बार.

बाल साहित्य की परम्परा बहुत पुरानी है। बच्चों की पहली गुरु उसकी माँ होती है जो उसे बचपन से ही कई बाल कथाओं के माध्यम से उसके सवालों का जवाब देती है। बच्चा चाहे चाँद लेने की जिद करे या रात में अन्धेरा होने पर सूरज से नाराज हो। माँ सभी बाल प्रश्नों का उत्तर मन किवदंतियों, कथाओं और लोकोक्तियों के आधार पर देती है जो उसे अपने माता-पिता और आसपास से प्राप्त होता है।

आज भारत में अधिकाँश चर्चित टी वी चैनलों ने बच्चों के दैनिक कार्यक्रमों को प्राथमिकता नहीं दी है। और हिंसात्मक फिल्मे बच्चों के सोने के पहले चलाई जाती हैं। यहाँ पश्चिम देशों के प्रवासियों को और उनके बच्चों को अच्छा प्रायोगिक बाल साहित्य मिलता है जिससे वह रोजमर्रा के प्रश्नों का उत्तर पाते हैं। ये सूचनायें एक सी होती हैं चाहे उसे टी वी पर दिखाया जाये, माता-पिता बताये या अध्यापक या पड़ोसी बच्चे को बताये। इससे बच्चे में आत्मविश्वास और विश्वसनीयता बढ़ती है और असमंजस की स्थिति नहीं होती है।

नार्वे में रात नौ बजे के बाद वयस्क, फ़िल्में और वे समाचार जिनके दृश्य भयावह हो सकते हैं दिखाए जाते हैं. यहाँ बच्चे शाम सात बजे से सोना शुरू कर देते हैं। ज्यादातर बच्चों को खाना खिलाकर सुलाने की तैयारी होती है और माता-पिता बच्चों के साथ खाना खा लेते हैं. और माता-पिता और अविभावक की जिम्मेदारी होती है कि उनका बच्चा समय से सोयें और माता-पिता परिवारजन और पड़ोसी शोर न मचायें।

बच्चों के सोने के पूर्व शाम छः बजे बच्चों का टी वी शुरू हो जाता है जो यहाँ लोकप्रिय है माता-पिता, अविभावक और बच्चे अक्सर साथ-साथ देखते हैं.

यहाँ तक कि बच्चों के सामने नार्वे की पुलिस माँ और पिता को गिरफ्तार नहीं करती।
मेरे जैसे प्रवासी साहित्यकारों का लिखने के पूर्व उपरोक्त बातों का और मानवीय मूल्यों का ध्यान रखना पड़ता है।

प्रवासी लेखन इससे अछूता नहीं है।  सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' की बाल कथा 'सीख' में बिल्ली और चूहे की कथा है। जिसमें कथा मनोरंजन करते हुए यह बताती है कि टी वी अधिक नहीं देखना चाहिए और बच्चों को मोबाइल से दूर रहना चाहिये। यह पश्चिम में प्रायः माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल के खिलौने और आईपैड और टीवी पर प्रतिबंधित करके केवल बच्चों के कार्यक्रम या बाल फ़िल्में ही उनमें देखी जा सकती हैं। यहाँ बाल साहित्य का प्रयोग मातृभाषा को अधिक जानने और उसमें अभिव्यक्ति पर जोर दिया जाता है।

बच्चे के लिए मात्र भाषा जरूरी है और बच्चे का अपनी मात्र भाषा सीखना उसका अधिकार भी है. जबकि बच्चा कम से कम चार भाषाएँ दो वर्ष की आयु से सीख सकता है बशर्ते उसे सही तरीके से सिखाया जाये। हिंदी में जो आजकल बाल साहित्य के रूप में नयी किताबें आ रही हैं उनमें भारत की कहानियों के साथ अनुदित होकर विदेश में लिखे जा रही कहानियों में विदेशी पृष्टभूमि को भी दर्शाती हैं.

अतः बच्चा वहां की संस्कृति और समाज की जानकारी के अभाव में वह ज्ञान और सूचना नहीं प्राप्त कर पाता जो उसके आसपास है उस देश और संस्कृति की है जहाँ वह रहता है।

  लेखक की एक अन्य बाल कथा में उत्तर नार्वे और उत्तरी रूस का जिक्र किया गया है।  दोनों देशों की उत्तरभग में सीमाएं मिली हुई हैं. बात-बात में बच्चे जान सकेंगे कि दोनों देशों के बच्चे एक दूसरे के साथ खेलना चाहते हैं क्योकि सीमाएं लगी हैं पर सरहद और राजनैतिक कारण से ज्यादा नहीं मिल पाते।  दोनों देशों में राजनैतिक सम्बन्ध मधुर न होने के कारण। यही बच्चे जब बड़े होने तो वे बेहतर समझ सकते हैं क्योंकि बच्चे भगवान का रूप होते हैं और वे सरहदों से परे सोचते हैं।

एक बाल कथा मैंने लोककथा की तरह बाल कथा लिखने का प्रयास किया उसमें नार्वे में आयी महामारी से असंख्य लोगों की मौत होने और जब बच्चा धार्मिक स्थल में जाता है सहायता के लिए कि वहाँ के लोग उसकी मदद करेंगे पर वह बच्चा देखता है कि वे जिम्मेदार लोग धार्मिक स्थल छोड़कर जान बचाकर भाग गये हैं। तब वह बच्चा अपने परिवार के महामारी में मरे लोगों को अंतिम विदाई देने के लिए अपने प्रयास करता है। इस कथा में ऐतिहासिक और यहाँ की संस्कृति और भौगोलिक जानकारी भी मिलती है।

मेरी बहुत सी कवितायें भी बच्चों के लिए हैं। दो बाल कवितायें कक्षा दो और चार के पाठ्यक्रम में भी है।
आने वाले समय में प्रवासी बाल साहित्य का बड़ा हिस्सा भारत के स्कूलों में पाठ्यक्रम में होगा। इसका कारण मनोवैज्ञानिक और तर्क तथा मानवीय मूल्यों की सर्वांगीण सहमति और विकास के कारण।

लेखक (सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक') स्वयं डेनमार्क के एच सी अन्दर्सन, स्वीडेन की आस्त्री लींदग्रेन और नार्वे की आन कात वेस्तली की कथाओं का प्रभावित् है. ये तीनों स्कैण्डिनेवायाई देशों (नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क और फिनलैण्ड) के विश्वप्रसिद्ध बाल साहित्यकार थे और लेखक ने  एच सी अन्दर्सनकी कथाओं और नार्वे की लोककथाओं का अनुवाद भी किया है.

नार्वे में बाल लेखक

नार्वे में बाल लेखकों में संगीता शुक्ला ने दस -ग्यारह वर्ष की अवस्था में दो कवितायें लिखी थीं जो हिंदी और नार्वेजीय भाषाओँ में थीं और जो यहाँ की बाल और युवा रचनाकारों के संकलन में हिस्सा भी बनी थी.

भारतीय बच्चे नार्वेजीय स्कूलों में पढ़ रहे हैं और समय समय पर शौकिया नार्वेजीय भाषा में लिखते हैं. यहाँ से प्रकाशित एक मात्र हिंदी और नार्वेजीय भाषीय पत्रिका 'स्पाइल-दर्पण' आने वाले समय में भारतीय मूल के बच्चों को हिंदी, पंजाबी, तमिल और अन्य भारतीय भाषाओँ में लिखने के लिए प्रतियोगिता कराएगी ताकि यहाँ भी भारतीय भाषाओँ की रचनायें बच्चों और युवाओं द्वारा लिखी जाएँ जिन्हें प्रोत्साहित भी किया जाये।

विदेशों में हिंदी में कहीं-कहीं प्रवासी बाल साहित्य का सृजन हो रहा है परन्तु अभी कम प्रकाश में आया है.

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