शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

ओस्लो की सड़क पर - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'


रिक्शे पर घूमते, ओस्लो की सड़क पर - सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
तुम भी आओ न ओस्लो की सैर पर
ओस्लो की सड़क पर
रिक्शे पर बैठकर
स्मृतियों में घूम गए
अपने देश के नगर।

गाँव-गलियों की स्मृति
भर गयी स्फूर्ति,
ओस्लो में ठंडी -ठंडी बयार
आकर ब्रिग्गे पर सागर तट की नमी
भारत की गर्म हवा की कमी,
समझा नहीं पा रही माँ की गुहार।
नावों और जहाजों के द्वारों पर
आंखों की टकटकी
उत्साह तरोताजा
आशाएं थकी-थकी।
सब ओर नदी-सागर जल,
हो रही चहल - पहल,
करतब दिखाती सुन्दरी
आसमान पर डाले तार
उस पर चलता मोटर साइकिल जवान,
सुन्दरी के करतब को देखते



आयी गावं की नटीनी की याद
किए थे जिसने पेट पीठ एक
बाद में बटोरती सिक्के और विवेक
यहाँ सुन्दरी सुनहरी एकहरी परी
मौत से जूझते थे दोनों
एक छरहरी दूजी सावन की धूप सी खिली
मानो मध्य रात्रि के सूरज को लजाने
ये युवतिया बन गयी सूरजमुखी
हमारी सूरज सी किरणों सी दृष्टि को
मन के कोने में दे गयी थिरकन
आखों से चूमकर गहराती पुरवा बयार
छोड़ आए बेमानी हुए बदलते परिदृश्य
पौधों को दिया नहीं पानी
न बढ़ा सके कदम संकोच के सरगम,
प्रेम को कहें नादानी

बज उठी पायल की झंकार,
रूमाल पर पुष्प से गुदे चित्र
लगते हैं कोहरे मध्य
भूले-बिसरों के वायदे विचित्र।

भूल गए, देहरी पर लगाये थे फूल
कौन सींच रहा होगा, गुलाब या बबूल।
नहीं खोज, कोई ख़बर,
यही है जीवन के पथ का दर्शन, सुकुमार!


धन्य हैं फुटपाथ के संगीतकार !
बीती हुई यादों को दे रहे नयी दृष्टि,
हम बोलते है, पर गूंगे हैं हमारे गुरु।
जो सुन नहीं पाते, वे हैं हमारी प्रेरणा
सूर दे रहे हैं हमें अंतर्दृष्टि,
खोकर सब कुछ निहारते सागर को कभी,
कभी चलते हुए सौन्दर्य की
अजंता की जीती जागती इन्द्रियां।
पुराने क्रिस्तानिया के आधुनिकता से परिपूर्ण
वेगेलांस के नगर में झूम गयी,
ग्लोमा को मान बैठे गंगा,
नदी को समझ बैठे गोमती।

हिमालय की बर्फ की ठंडक लिए
नार्वे की लम्बी शीत
जोडों के दर्द और शरीर की बेबसी सा सौहाद्र,
खुशियाँ कितनी निस्वार्थ।
जीवन का मोलतोल, पैसे यथार्थ?

कितनी भी मिठाई दो, दुलारो समझाओं
कितने भी सब्ज बाग़ दिखाओ?
माँ को भूल नहीं सकते हैं बच्चे!
रोशनी में न दिखा,
वह दिखा रात में सूरज की किरणों में
थ्रोम्सो में हार्स्ताद, उत्तरध्रुवीय नगरों में।
तुम भी करो सैर संग
भर कर नव तरंग
छूट गया , क्या हुआ अपना घर आँगन
भर दो इस संस्कृति में चुटकी भर सिंदूर
आने लगे अपनी भारतीय संस्कृति की सुगंध।

हाथ -पाँव मलने से अच्छा है
देकर जाएं अपनी नयी पीढी को
अपने संस्कारों से परिपूर्ण कदम्ब
जिसकी छाया में पा सके
अपने पूर्वजों के अंश
गर्व से कह उठे
मेरी संस्कृति मेरी अस्मिता
धन्य हैं माता -पिता।
जहाँ भी रहें, खुश रहें
देती है हर माता-पिता और गुरु की दुआ।

तुम आओ ना ओस्लो की सैर पर
शरद आलोक राह देखते
पर भूलना नहीं लाना देश की मिटटी
अपनों की चिट्ठी,
अपनों का प्रेम और दर्द का नशा
मेरे तन-मन में बसा
मेरा घर आँगन
चंदन सी महकती यादें
चमचमाता आगामी भविष्य!

जितना भी प्रेम करो बढ़ता है
जितना भी धोओं निखरता है रंग
यही है जीवन में अपनेपन का अहसास
जो रक्त से नहीं बनता
वरन अहसासों से बनता है
और समर्पण में निखरता है।

ओस्लो की सड़क पर भी भारतीय संस्कृति,
हर एक की अपनी कहानी
हम सब हैं किसान
बोए हैं यादों के हरसिंगार और उगें बबूल
कैसे कहें अपनों की अपनों से बेईमानी ।
बाँहों में थामे चले कितने कोस डगर
डोली की दो पल की याद
दे जाती मुझको मधुमास।

मालिन लगा रही गुहार
- शरद आलोक
धरती पर मेघा की आस
हो बरसात,
खेत - बाग़ आँगन में हरियाली घास
धान की फसल रही पुकार
वर्षा की आए फुहार
मालिन लगा रही गुहार
गीली चादर में उढा कर
दहकती धूप से बचाकर
फूलों के बेच रही गजरे,
सावन का महीना, तप रहे मार्ग
फूल रही साँस
कर रही वर्षा का इन्तजार।

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