परदे पर नयी बहस है -शरद आलोक
जब -जब दुविधा होती है
मुद्दे चर्चित होते हैं।
राजनीति चौपालों में
तब किस्से गरम होते हैं॥
अपने आँगन का कचरा,
दूजे द्वारे डालेंगे ।
विपरीत हवा में फिरसे,
अपनी हद में पायेंगे॥
अर्चना सुमन स्तवन में,
अज्ञान दे रही निराशा।
अब दिया कोई बुझाता,
तब उद्यमी उसे जलाता।.
तुम हताश कभी न होना,
दुःख-दर्द निवारण करना।
कर्म श्रम साधना अव्यय,
नव उर्जा उत्साह बढ़ाना॥
कैसे जाने -अनजाने,
कपड़ों पर बहस छिड़ी है।
आजादी दुहाई देते जो
कपड़े प्रतिबंधित करते॥
हम तुम क्या पहनेंगे
पहले कानून पढ़ेंगे।
कठपुतली से नाच रहे,
अब और नहीं नाचेंगे॥
सर ढका हुआ है मेरा,
तुमको तकलीफ बहुत है।
बालों को छिपा रहे हैं,
पगड़ी, हिजाब आफत है॥
आदर्श ढोल पीटेंगे ,
क्या पत्थर युग लौटेंगे।
नव ज्ञान पड़ गया फीका,
क्या पैदल सदा चलेंगे?
(आजकल अनेक पश्चिमी देशों में बुरका, हिजाब, ko को लेकर राजनैतिक और मीडिया में बहस हो रही है।
कपड़ो को आप अपने चुनाव से ही पहनेंगे। जैसे पगड़ी तो सिख धर्म का एक महत्वपूर्ण परिधान में आता है।
पगड़ी और हिजाब तथा स्कॉट या स्कार्फ से केवल व्यक्ति सर या बाल ढकता है। माना बुरका से मुख ढकता है। परन्तु बुरका, हिजाब आदि को पगड़ी से तुलना करना धार्मिक लिहाज से तर्क सम्मत नहीं है.-शरद आलोक, Oslo )
1 टिप्पणी:
शरद अलोक की कविता अच्छी लगी.
आजकल हर जगह कभी हिजाब को लेकर चर्च हो रही है
तो कभी स्कार्फ और हिजाब की.
अच्छी कविता के लिए बधाई
माया भारती
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