रविवार, 5 दिसंबर 2010

पढ़ा रहे आग उठ रहा धुंआ -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

पढ़ा रहे आग, उठ रहा धुंआ


लेखक मित्रों के साथ क्रिसमस पार्टी में लेखक Julebord, Oslo, 27.11.10
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

तुम्हारी स्मृतियों के सहारे
सर पर ईंट, पाँव से सानते गारे
कितने ही भवनों में लगा खून-पसीना.
श्रमिकों को हराम, चैन से जीना.

कितने निस्सहाय, निरुत्साह हैं
शरण में आये हुए ठेकेदार.
रात्रि होटलों में पकड़ी गयी बेटियां,
खा रहे मजदूरनियों की बोटियाँ.

स्वयं इंसानी हवस मिटाने
माता-पिता का बोझ उठाने
लाल-बत्ती चौराहों पर आ गयी
कोबरा दंश सहलाती संताने.

बाजारभाव कर रही शहजादी,
यह अरब देश का शौर्य या बरवादी?
मानवता की उड़ रही खिल्ली
हर घंटे नीलम हुई आजादी.

औरत पाँव की जूती,
प्रवासी दोहरे नागरिक.
धर्म तुरुप का पत्ता,
बिच्छू का बिल, बर्रैया का छत्ता.

कट्टर देश की धार्मिक मधुशाला.
धर्म का नंगापन, गुप्त चकला.
हाथी के दांत, मुख में पुती कालिख,
मुख में राम, बगल में छूरी.

आदर्श बना कैसा जुआँ
धर्म के ठेकेदार, मौत का कुआं.
कोल्हू का बैल, आँखों में पट्टी
पढ़ा रहे आग, उठ रहा धुंआ.
(ओस्लो, ०५ दिसंबर २०१० )

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