बुधवार, 1 दिसंबर 2010

हिंदी वालों और भारतीय भाषाओँ के खिलाफ षड्यंत्र अच्छी बात नहीं - शरद आलोक

हिंदी वालों और भारतीय भाषाओँ के खिलाफ षड्यंत्र अच्छी बात नहीं - शरद आलोक
सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली में संशोधन के कारण गैर अंग्रेजी भाषी छात्रों की असफलता निश्चित है - डा विजय अग्रवाल
सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली के लिए संघ लोक सेवा आयोग ने सन 2000 में वाईके अलघ के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी, जिसने अक्टूबर 2001 में अपनी रिपोर्ट यूपीएससी को सौंपी थी। अलघ कमेटी ने प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा में कुछ परिवर्तन सुझाए थे। इन सुझावों को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए सरकार ने 2011 की प्रारंभिक परीक्षा के स्वरूप में बदलाव की घोषणा की है। फिलहाल मुख्य परीक्षा को नहीं छेड़ा गया है। प्रारंभिक परीक्षा के दूसरे प्रश्नपत्र के रूप में जहां परीक्षार्थी को किसी एक विषय का चुनाव करना पड़ता था, वहीं अब उसकी जगह सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट देना होगा। इस पेपर को शामिल किए जाने के पक्ष में एक सामान्य तर्क तो यही है कि इससे परीक्षार्थियों के चरित्र, निर्णय लेने की क्षमता, तार्किक क्षमता, समस्याओं के समाधान, मानसिक योग्यता व दृढ़ता, कम्यूनिकेशन स्किल्स, सामान्य समझ तथा गणित की सामान्य योग्यता आदि की जांच की जा सकेगी। यह पेपर बहुत कुछ कैट की परीक्षा जैसा ही है। इस प्रश्नपत्र को लागू किए जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि वैकल्पिक पेपर में स्केलिंग की पद्धति लागू की जाती थी, ताकि किसी विषय विशेष के विद्यार्थी को न तो अतिरिक्त लाभ मिल सके और न ही किसी को कोई नुकसान उठाना पड़े। सूचना के अधिकार के तहत यूपीएससी से उसकी स्केलिंग पद्धति की जानकारी मांगी गई थी, जो वह अभी तक नहीं दे सकी है। निश्चित रूप से इससे आयोग की स्केलिंग पद्धति संदेह के घेरे में आ जाती है। अब प्रारंभिक परीक्षा में वैकल्पिक विषय को ही समाप्त करके इस संदेह से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाने का प्रयास किया गया है। लेकिन यह संदेह तब तक पूरी तरह खत्म नहीं होगा जब तक कि सरकार इसकी मुख्य परीक्षा में भी अलघ कमेटी के सुझाव को लागू न करे, क्योंकि उसमें जब तक वैकल्पिक विषय रहेंगे, तब तक स्केलिंग पद्धति रहेगी और जब तक यह पद्धति रहेगी तब तक संदेह भी बना रहेगा। मैं सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट में शामिल उस खतरनाक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जो हमें एक बार फिर से लार्ड मैकाले की याद दिलाता है। इस एप्टीट्यूट टेस्ट के सात मुख्य बिंदु हैं। इनमें अंतिम और सातवां बिंदु है-इंग्लिश लैंग्वेज कम्प्रीहेंसिव स्किल्स। सामान्यतया प्रारंभिक परीक्षा के प्रश्नपत्र में वस्तुनिष्ठ किस्म के 150 प्रश्न पूछे जाते हैं। इस पेपर में प्रत्येक बिंदु से औसतन 20 प्रश्न पूछे जाएंगे। इस परीक्षा के जानकार लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि जिस परीक्षा में हर साल लगभग चार लाख विद्यार्थी बैठते हों और जिसमें औसतन बारह हजार विद्यार्थियों का चयन होता हो, वहां एक-एक नंबर का अंतर कितना मायने रखता है। इस पेपर का एक प्रश्न दो नंबर का होता है। इस तरह यदि किसी विद्यार्थी की अंग्रेजी अच्छी नहीं है उसके चालीस नंबर पहले ही खत्म हो चुके होंगे। यहां मुद्दा यही है कि अच्छी अंग्रेजी न जानने वाले विद्यार्थी के चयन की संभावना बची ही नहीं रह जाएगी। एप्टीट्यूट टेस्ट के समर्थकों का कहना है कि इसके लिए अंग्रेजी ज्ञान का स्तर केवल दसवीं कक्षा तक का है। यह सही नहीं है। जिस व्यक्ति को बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं आती, उसके लिए इसे हल कर पाना संभव नहीं है। अंग्रेजी के समर्थकों का यह भी कहना है कि अंग्रेजी जाने बिना केंद्र और राज्य का पत्राचार मुश्किल है। इस दलील में भी दम नहीं है। अपने 26 वर्ष के प्रशासकीय जीवन में मैंने 17 साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भवन जैसी सर्वोच्च संस्थाओं में बिताए हैं और मुझे यह कहने में गर्व व आत्मसंतोष का अनुभव हो रहा है कि अंग्रेजी ज्ञान का अभाव मेरे रास्ते में कोई बाधा खड़ा नहीं कर सका। इस संबंध में प्रशासनिक चिंतक फ्रेडरिक रिग्स के विचारों को जानना जरूरी है। उन्होंने प्रशासन के संबंध में पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण की बात कही थी और जिसे पूरी दुनिया ने विशेषकर विकासशील देशों ने खूब सराहा और लागू भी किया। रिग्स के अनुसार किसी भी देश की प्रशासनिक प्रणाली वहां की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से पैदा होनी चाहिए। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि विकसित देशों का प्रशासनिक स्वरूप विकासशील देशों के लायक नहीं हो सकता। अंग्रेजी का ज्ञान और प्रशासन की योग्यता के समानुपातिक संबंध का सिद्धांत न केवल मूर्खतापूर्ण है, बल्कि घोर षड्यंत्रकारी भी है। सन 1979 से सिविल सेवा परीक्षा के दरवाजे हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के लिए खोल दिए गए थे। 2008 की मुख्य परीक्षा के आंकड़ों पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि सभी के लिए अनिवार्य विषय सामान्य ज्ञान के प्रश्नपत्र में कुल 11,320 विद्यार्थी बैठे थे। इनमें से 5,117 विद्यार्थी हिंदी माध्यम के थे, 5,822 विद्यार्थी अंग्रेजी माध्यम के थे और शेष विद्यार्थी अन्य भाषाओं के थे। ये आंकड़े बताते हैं कि अब हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने वाले परीक्षार्थियों की संख्या आधे से अधिक हो गई है। अंतिम रूप से चयनित विद्यार्थियों का अनुपात भी यही है। स्पष्ट है कि अब जो एप्टीट्यूट टेस्ट लागू किया जा रहा है, उसमें इंग्लिश लैंग्वेज कम्प्रीहेंसिव स्किल को चुपचाप बड़े खूबसूरत तरीके से शामिल कर इन पचास प्रतिशत विद्यार्थियों को हमेशा-हमेशा के लिए बाहर कर देने का एक बौद्धिक षड्यंत्र रचा गया है। सरकार को अपने इस निर्णय पर फिर से विचार करना चाहिए ताकि भारतीय प्रशासन का स्वरूप न बिगड़ जाए और भारतीय प्रशासन भारतीयों के द्वारा और भारतीयों के लिए ही रहे। (लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)

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