शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

पुरानी यादें, मुद्दा छात्र जीवन में संघर्ष  


हाई स्कूल गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग लखनऊ से 
गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग लखनऊ में स्थित है जो मेरे ह्रदय में बसा रहा है. यहाँ से मेरी बहुत सी स्मृतियाँ जुडी हैं. यहाँ मैं  सांस्कृतिक परिषद का मंत्री और  साहित्य परिषद का उपाध्यक्ष  था इसी के साथ विज्ञान परिषद में पुस्तकालयाध्यक्ष था. सभी परिषदों के अध्यक्ष अध्यापक होते थे. यहाँ मुझे साहित्यिक संस्कार मिले और बहुत से कवि और विद्वानों को सुना। प्रधानाचार्य डा दुर्गा शंकर मिश्र, सुदर्शन सिंह एवं गंगाराम त्रिपाठी जी साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत रूचि लेते थे और सांस्कृतिक कार्यक्रम विद्यालय में करवाते थे. श्री विनय रस्तोगी जी विज्ञान सम्बन्धी कार्यक्रम और प्रदर्शनी करवाते थे. 
इन्टरमीडिएट डी ए वी इन्टर कालेज, लखनऊ से 
जब मैं डी ए वी इन्टर कालेज, लखनऊ का छात्र बना तो यहाँ उमाशंकर त्रिवेदी, रमेशचन्द्र अवस्थी और दिनेश मिश्रा जी के संपर्क में आया था जिनसे बहुत कुछ सीखा. यहाँ छात्रसंघ का चुनाव बहुत विकट हो गया अक्सर दो दलों में झड़प और मारपीट होती थी. मैं बिना किसी बड़े ग्रुप से जुड़ा चुनाव लड़ रहा था. यहाँ लोगों को कहते सुना था कि जो जितनी बार जेल जाता है वह उतना ही परिपक्व नेता होता है. 
लखनऊ में जब मैं छात्र नेता था तब अक्सर पुलिस गिरफ्त में आना पड़ता था. किसी गिरफ्तारी के बाबत नहीं केवल पूछताछ के लिए. 
पहले यह जानना जरूरी है कि मैं विद्यालय में किसी भी तरह हड़ताल के पक्ष में कभी नहीं रहा. वाकआउट के भी विरुद्ध था. बहुत से तरीके हैं अपनी मांगे रखने के लिए और समस्यायें सुलझाने के लिए. मैं शिक्षकों के विरोध के पक्ष में कभी नहीं रहा. 
मैं समस्याओं की शुरुआत में ही उसे हल करने के लिए पहले आपस में तय करके कि असल क्या मुद्दा है और कैसे उसकी पैरवी करनी है.
छात्रों का एकमत होना सबसे अच्छा है. फिर बातचीत के दौरान सभी के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिये।  
मेरा मानना है कि क्षात्रनेता को अपने सहपाठियों से, कार्यालय से, शिक्षकों से अच्छे  सम्बन्ध और निरंतर संवाद रखना जरूरी है. छात्रनेता को चाहिये कि वह एक की बात दूसरे को न बताये बस उसी बात पर ध्यान दे और कहे जिससे सौहाद्र बनता हो और समस्या के सुलझाने के लिए जरूरी हो.
स्नातक किया मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ से 
मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ में शिक्षा प्राप्त करते समय जुलूस आदि को कालेज बंद होने के बाद ही समर्थन किया पर यदि अन्य कोई अपनी जिम्मेदारी पर ऐसा कर रहा है तो मैं उसमें रोड़ा नहीं बना और सामान्य रहने की कोशिश की. विद्यालय के प्रांगण में मैं आम सभा के पक्ष में नहीं रहा क्योंकि पढ़ाई और शान्ति में व्यवधान पड़ता था. इस बात को मेरे अध्यापक श्री त्रिवेदी जी ने जब मेरी चौथी पुस्तक काव्य संग्रह 'दीप जो बुझते नहीं' का विमोचन लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हो रहा था तब जिक्र किया था, "सुरेशचन्द्र शुक्ल' क्रांतिकारी विचारों के होते हुए भी विद्यालय में वाक् आउट और हड़ताल के खिलाफ रहे. शिक्षकों के मध्य भी वह प्रिय थे.उनकी कहानियाँ विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित होती थीं. वह रेलवे में श्रमिक भी थे यह बात उन्होंने शुरू में छिपा रखी थी. इनकी कविता जब किसी अखबार में छपती तो वह दिखाते थे. अंतिम वर्ष में  जब हम लोगों (शिक्षकों) को  सुरेश के आर्थिक संघर्ष के बारे में पता चला तो हम लोगों में इनके प्रति और स्नेह उत्पन्न हो गया. इनके उज्जवल भविष्य की कामना एक अध्यापक के नाते भी करता हूँ. "
('दीप जो बुझते नहीं' का  लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में विमोचन हुआ था. उपस्थित लोगों में मुख्य थे विभागाध्यक्ष प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित, प्रो शम्भुनाथ चतुर्वेदी, डॉ दुर्गाशंकर मिश्र,  प्रसिद्द कवि और  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष  लक्ष्मी कान्त वर्मा, पूर्व प्रोफ़ेसर और जाने माने कवि आदरणीय कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह, के के वी में मेरे हिन्दी अध्यापक त्रिवेदी जी मौजूद थे.)

यह उस समय की बात है जब मैंने सन 1976 में बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ में दाखिला लिया था. उसके पहले डी ए वी कालेज में इंटर पास करने के बाद यहाँ पर ही डिग्री कालेज में दाखिला लिया था जहाँ शाम की  कक्षायें लगती थीं. शाम छह बजे कक्षाएं होने के कारण मैं कक्षाओं में अनुपस्थित रहता था. अतः एक वर्ष बर्बाद हो गया जिसका मुझे बाद में बहुत अफ़सोस हुआ. डी ए वी डिग्री कालेज की पत्रिका में मेरी पहली कहानी 'अपूर्व स्वप्न' कहानी प्रकाशित हुयी थी.  बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ की पत्रिका में जय प्रकाश नारायण जैसा मैंने पाया और कहानी 'आंसू रुक न सके'  विद्यालय की पत्रिका में छपी थी. 

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