बुधवार, 22 जून 2016

बृजमोहन ने सभी को मोह लिया (संस्मरण) - सुरेशचन्द्र शुक्ल suresh chandra shukla

बृजमोहन ने सभी को मोह लिया (संस्मरण) - सुरेशचन्द्र शुक्ल suresh chandra shukla
(मेरे पिताजी बृजमोहनलाल शुक्ल)

(मुझे संस्मरण लिखने के लिए दो लोगों ने बहुत जोर दिया दोनों ही साहित्य और आलोचना में जाने माने नाम हैं. ये नाम हैं डॉ कमल किशोर गोयनका और डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल। इसी के साथ यह भी शायद महत्वपूर्ण हो कि ओस्लो में मेरे  बियरके के टाउन मेयर ने मुझपर  नार्वेजीय भाषा में  पुस्तक लिखी है जो उन्होंने मेरे साक्षात्कार लेकर लिखी है. पिछले  वर्ष मुझे  नार्वे से  अनेक पुरस्कार मिले थे  इसी कारण  नार्वे के लोग मेरी बायोग्राफी  पढ़ना चाहते हैं।  पर  बहुत कुछ कहना होता है और  बहुत कुछ छिपाना पड़ता है।   अब मैं  फिर से कुछ संस्मरण लिख रहा हूँ बिना पॉलिश और  बिना सजधज  और काटछांट के। जो संस्मरण मैंने यहाँ ब्लॉग पर लिखने शुरू किये हैं वह शुरुआत है और दूसरों की राय से और स्वयं भी संवर्धन करने में आसानी होगी। उसके बाद ही  निकट भविष्य में पुस्तक के रूप में प्रतिष्ठित  प्रकाशकों को छपने दूंगा।   निम्न लिखे संस्मरणों में संपादन और संयोजन की  अभी जरूरत लगती है  फिर भी ऐसी सूचनायें  अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं इस लि ए फिलहाल यह अपने आप में  एक ही है. धन्यवाद।   )


जब मैं कक्षा नौ में रस्तोगी कालेज ऐशबाग़, लखनऊ में पढ़ता था  सन् १९६९ में मेरी कविता अखबार में  प्रकाशित हुई तो पिता जी ने उस अखबार को अपने मित्र मिश्रा जी को पढ़ाया और खुश हुए. 

अपने मोहल्ले में आयोजित होली के एक कार्यक्रम में उन्होंने जब मुझे कैरिकेचर करते और कविता पाठ करते सुना तो उन्होंने मेरी माताजी को खुशी व्यक्त करते बताया और शंका व्यक्त की कि कहीं सुरेश कलाकार न बन जाये फिर क्या होगा?  इसके साथ ही वह मेरे घूमने और सिनेमा देखने की रूचि से थोड़ा परेशान रहते थे जिसे मैं बहुत बाद में जान सका था. 

सन्  १९७१ से सन् १९७७ तक पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग में 'युवक सेवा संगठन' की स्थापना की और मोहल्ले में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने लगा था. 
सन्  १९७१ से सन् १९७७ तक आयोजित इन कार्यक्रमों में  स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों: शचींद्र नाथ बक्शी, राम कृष्ण खत्री, गंगाधर गुप्ता जी और समाज सेवियों में भारती और जगदीश गांधी, योगेन्द्र नारायण,  मंगला प्रसाद मिश्र, स्थानीय लेखकों में : शिवशंकर मिश्र, सत्य नारायण त्रिपाठी, शारदा प्रसाद भुसुंडि, वकील इलाहबादी, डॉ दुर्गाशंकर मिश्र, एल बी वार्ष्णेय और अन्य अतिथि बने थे. पिताजी सभी कार्यक्रमों में उपस्थित रहते थे.  
आइये मेरे पिताश्री जो इस दुनिया को बहुत पहले ही सन् १९९२ में छोड़कर चले गए थे, आइये इस संस्मरण में उनके बारे में कुछ और जानें।  

मेरे पिता बृजमोहनलाल शुक्ल को जैसा मैंने देखा 

हाजिर जवाब मेरे पिता से जब मेरे बी ए में मेरे मित्र रमेश कुमार ने पूछा,
"चाचा जी आप नशा करते हैं आप भांग खाते हैं." पिताजी ने जवाब दिया, " जब भतीजे पूरी पूरी बोतल (शराब) उड़ा जाते हैं तो चाचाजी तो मामूली नशा करते हैं."

मैंने डी  ए वी  कालेज से इंटरमीडिएट कालेज लखनऊ से इंटर पास किया और  बी एस एन वी डिग्री कालेज से बी ए किया था. दोनों ही विद्यालय में छात्रसंघ के चुनाव भी लड़े थे. मेरे सहपाठी जो चुनाव में मेरे प्रतिद्वंदी थे उन्होंने मेरे घर कुछ अपने दबंग मित्रों को मुझे चुनाव में न लड़ने की हिदायत देने के लिए भेजा था. वे तीन लोग थे. उनमें से एक ने कहा कि आप अपने बेटे को चुनाव लड़ने से मना  कर दीजिये नहीं तो वह घर वापस नहीं आयेगा। मेरे पिताजी ने उनसे बातचीत की और उन्हें शांत कर चाय पिलाकर भेजा।

अपने समाज में किसी आम आदमी का नेता बनना किसी नेता और राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं को नहीं सुहाता है. वे लोग रुकावट खड़ी करते रहते थे. यह मैंने अपने युवावस्था में ही जान लिया था. मेरे पिताजी मेरे छात्रनेता बनने के खिलाफ नहीं थे पर मुझे नौकरी और पढ़ाई में रुकावट आये बिना यह सब करना होता था। कक्षा दस में जब था तो मेरी रेलवे में नौकरी मेरे पिता और उनके मित्र श्री सत्य नारायण त्रिपाठी जी की कृपा से लग गयी थी.

मुझे यह जानकार बहुत अजीब लगा था अपनी माँ से यह जानकर कि जब मैं तीन वर्ष का था अपने ननिहाल में था और बहुत गम्भीर रूप से बीमार पड़ा था. बड़ी चेचक भी निकली थी. तब मेरे पिता कभी भी मुझे और मेरी माँ को देखने नहीं आये थे. पूरे जीवन में वह एक बार ही मेरे स्कूल गए थे जब मेरा प्रवेष कक्षा नौ में होना था.

जब मैं तीसरी कक्षा में पूनम शिक्षा निकेतन बड़ी कालोनी ऐशबाग़, लखनऊ में पढ़ता था  तब परीक्षायें  होने वाली थी तब तीन महीने की गर्मियों की छुट्टी की एडवांस फीस जमा होनी थी. पर पिताजी मेरी फीस न जमा कर सके थे अतः मेरा नाम कट गया था. उसके बाद मेरे पिता ने नगरपालिका के स्कूल में दाखिला दिलाया था जहाँ से मैंने कक्षा  पांच पास की थी. वहां एक अध्यापक थे जिनका नाम नन्हा महाराज जो छन्द लखने और सुनाने में सिद्धहस्त थे. पिताजी का नन्हा महाराज से परिचय था. नन्हा महाराज बताते थे कि मेरे पिता को भी कवितायें  लिखने का शौक था. मैंने अपने पिता को गुनगुनाते तो देखा था पर कभी उन्हें उनकी अपनी कवितायें सुनाते नहीं सुना और नहीं देखा था.
वह हमको इस श्लोक से सीखने को कहते थे. जो बहुत चर्चित श्लोक है विद्यार्थियों को लेकर था
''काक चेष्टा, वको न ध्यानम्, स्व निद्रा तथयि  वचः,
अल्पहारी गृहस्त त्यागी, पंचकर्म विद्यार्थी।"

उन्नाव में जन्म और लखनऊ में पूरा जीवन बिताया 
मेरे  पिताजी का पूरा नाम डॉ बृजमोहनलाल शुक्ल है जो अंग्रेजी में अपना नाम बी एम लाल लिखते थे. 
उनका जन्म १९---- को मवैयामाफी गाँव, थाना अचलगंज और पोस्ट आफिस बेथर, उन्नाव जिले में हुआ था और मृत्यु लखनऊ में          १९९२ को हुयी थी. लखनऊ में पहले चित्ताखेड़ा और फिर ३०/८ एवं ४१/३ पुरानी  लेबर कालोनी, ऐशबाग में और अंत में अपनी मृत्यु तक ८-मोतीझील ऐशबाग रोड, लखनऊ में रहते थे.  
लम्बा कद, बड़ी आँखें, आकर्षक चेहरा, सांवला रंग, बातूनी (बातचीत करना पसंद करने वाले) धैर्य और खाने और पहनने में शौक़ीन  मेरे पिता को आर्थिक  स्थितियों ने सादगी में रहने के लिए मजबूर किया था. बचपन में मैंने देखा कि उन्हें हैट और ओवर कोट पहनने का शौख था परन्तु पिता को आर्थिक समस्याओं ने मजबूर किया आम कपडे पहनने को.  बाद में कुर्ता धोती और सदरी पहनते रहे और केवल एक कोट को बरसों पहनकर गुजारा किया।

भाई-बहनों में सबसे बड़े 
वह अपने भाई बहनों में सबसे बड़े थे.  उनसे छोटे क्रम से: कृष्ण गोपाल (साधुओं की संगत के कारण वह घर पर नहीं रहते थे और कृष्ण गोपाल चाचा पता नहीं जीवित हैं कि नहीं), रामरती (बुआ), स्व गोदावरी (बुआ), राम गोपाल (चाचा जो सुल्तानपुर नगर में सिविल लाइन्स में रहते हैं.) सावित्री (बुआ मुम्बई में रहती हैं) और कृष्णा (बुआ रायबरेली में ) रहती हैं.


चित्र में बृजमोहन लाल  जी अपनी पोती संगीता  शुक्ल के साथ सन १९८० में 

मेरे संबंधियों की नजर मेंं पिताजी 
वह हर काम में निपुण थे : मेरी बड़ी बुआ रामरती जी ने बताया, "बड़े भैया मुझसे और लल्ला भैया (कृष्ण गोपाल शुक्ल) से बड़े थे. हम सभी साथ-साथ खेलते थे. वह शांत स्वभाव के थे. अपने भाई बहनों से प्रेमभाव रखते थे. वह मिलनसार थे और हर काम में निपुण थे." बड़ी बुआ कुछ विचार करती हुई कहती हैं, "बड़े भैया चाहते थे कि हम सभी लोग पास-पास रहें। इसीलिए उन्होंने आवास-विकास में चार-पांच प्लाट देखे थे. वह चाहते थे कि हम, राम गोपाल (मेरे चाचा) और अन्य परिवारजनों के अपने घर हो और वह भी पास-पास हों. मृत्यु के लगभग छः-सात महीने पहले उन्होंने कहा था कि तुम्हारे लिए प्लाट देखा है. हम प्लाट देखने नहीं गये. रामगोपाल को सावित्री की शादी में लखनऊ आकर प्लाट देखने को कहा था पर वह नहीं आ सके थे. काश उनका यह सपना पूरा होता और परिवारजन पास-पास रहते". 
मेरी बड़ी बहन आशा तिवारी कहती हैं," सुरेश! पिताजी बहुत सीधे थे कोई चालाकी उनमें नहीं थी. जो भी कार्य करते थे किसी से छिपाते नहीं थे. वह खाने-पीने के बहुत शौक़ीन थे. एक बार की बात है पिताजी को बोनस मिला तो माताजी से कहने लगे कि उनके लिए जेवर बनवा देंगे। पिताजी के मित्र श्री मिश्रा जी दारु गोदाम नाम के मोहल्ले ऐशबाग में रहते थे और श्री हनुमान जी के मंदिर के बगल में कोयला और राख का व्यापार करते थे,  मिश्रा जी ने राय दी कि आपके पास जगह है और आप क्यों न पांच छ: ट्रक कोयला गिरवा  दें और कोयला और राख को अलग  करवाकर लाभ उठायें। मेरी माँ ने मिश्र जी का समर्थन किया।  पिताजी ने ८ -मोतीझील ऐशबाग, लखनऊ मेंं पाँच ट्रक राख-कोयले के गिरवा दिये।  मेरी माँ कोयला-बीनकर कोयला-राख बेचकर हमारा सभी का खर्च चलाने मेन पिताजी की मदद करने लगीं और उसी से घर बनवाया।  पिताजीने घर चलाने के लिए कर्ज ले रखा था।  घर का खर्च चलाने मेंं काफी मुश्किलें अाती थी. 
मुझसे बड़े भाई श्री रमेश चन्द्र शुक्ल अपने पिता के बारे मेंं कहते हैं, "मेरे पिताजी सभी का भला करते थे. उन्होंने गांधी मेडिकल हाल भी निशुल्क सेवा के लिए ही खोला था. उनमें बहुत सेवा भाव था. वह रुपये पैसे से और अपना समय देकर भी अपने संबंधों का इस्तेमाल करके  किसी बीमार को अस्पत्ताल मेंं  भर्ती करवाते, उसे  दवा दिलवाना अादि  से भी सहायता करते थे. अाखिरी समय में बहुत अस्वस्थ  होने से हम सभी बहुत परेशान थे. मैं  उनके अंतिम वर्षों मेंं उनके साथ  रहा था. ऐशबाग, लखनऊ  मेंं स्तर के अच्छे  डॉक्टर और क्लीनिक का न होना जहां  इमरजेंसी और घर पर उन्हें अारम्भिक स्वास्थ सहायता प्राप्त कर सकते थे. अाज भी स्थिति नहीं बदली है. अाज क्लीनिक तो हैं पर उनमें अनुभव वाले डॉक्टर नहीं है और स्तर की उचित मूल्य पर सेवा नहीं उपलब्ध है. जब पिताजी को अक्समात समस्या होने पर मेडिकल कालेज पहुंचे तो घंटों वह डॉक्टर की प्रतीक्षा करते रहे न अाया की सेवा मिली न नर्स की सेवा मिली कोई सहायता उन्हें नहीं मिली अंत मेंं उन्होंने बहुत से घंटों के बाद अपने प्राण त्याग दिये।"

मेरे बड़े भाई श्री राजेन्द्र प्रसाद कलकत्ता से १५ अगस्त १९७० को घर छोड़कर साइकिल यात्रा पर निकल पड़े थे.  जहां उनके मित्र गोपाल पांजा ( जो उस समय  ४०/४ पुरानी लेबर कालोनी, ऐशबाग  पड़ोस मेंं रहते थे) और कलकत्ता मेंं अपनी बड़ी बहन तथा  पूर्व मेयर मिहिर सेन से सहायता दिलाई थी.  बड़े भाई भारत से नार्वे साइकिल से विश्व यात्रा करने निकले और नार्वे अच्छा लगा फिर यहीं रह गये.  कलकत्ते से मुम्बई तक साइकिल से मुम्बई से बसरा(ईराक) तक पानी के जहाज से पहुँचे थे. बसरा से टर्की, सीरिया, यूगोस्लाविया, ग्रीस, जर्मनी होते हुए नार्वे अाये थे. बचपन मेंं वह भी कविता कहानी लिखते थे. परन्तु अब उन्हें साहित्य अथवा सामाजिक कार्यों मेंं रूचि नहीं है.
बड़े भाई विदेश (नार्वे) मेंं रहते हैं, जैसा मैने पहले लिखा है. उन्होंने लखनऊ मेंं भी अलग अपना घर बना लिया है. वह जब भारत अाते तो अपने निजी घर मेंं रहते थे तो पिताजी उनसे कुछ नहीं कहते थे बेशक मेरी मां बहुत परेशान रहती थीं क्योंकि उन्होंने उनके साइकिल टूर करते समय सप्ताह दो-दो दिनों तक ईश्वर पर विश्वास करके वृत रखतीं थीं कि मेरे बड़े भाई को कोई नुकसान नहीं पहुंचे और वह सलामत रहें।

मिठाई और पान खाने के शौक़ीन
मेरी बड़ी बुआ रामरती जी ने बताया, "भाई साहेब मिठाई खाने के बहुत शौक़ीन थे. मेरे बाबा उनके लिए हमेशा मिठाई लेकर आते थे. तभी से वह शौक़ीन हो गए थे. वह विनम्र स्वभाव के मृदुभाषी थे. वह हमको बहुत मानते थे. वह सभी भाई -बहनों को आदर देते थे. पिताजी पान और  तम्बाकू खाने के बहुत शौकीन थे. वह पान खुद लाते थे और  खुद उसे  लगाकर खाते थे."
वैसे भी लखनऊ मेंं पान खाने के बहुत से शौकीन लाग मिल जायेंगे इसीलिए जगह-जगह पान की दुकानें हैं.  
रेलवे कारखाने में इन्सपेक्टर 
मेरे पिता  डॉ बृजमोहनलाल शुक्ल रेलवे कारखाने में इन्स्पेक्टर थे. वह अारा शाप मेंं थे जहां वह लकड़ियों की जांच करते थे और अन्य इंस्पेक्शन करते थे. 
मैंने भी इसी रेलवे कारखाने (सवारी और मालडिब्बा कारखाना आलमबाग, लखनऊ) में साढ़े सात साल काम किया है सन १९७२ से २० जनवरी १९८० तक. मैं  शाप बी मेंं काम करता था जिसमें मालडिब्बे की मरम्मत होती थी, डिब्बे मेंं खराब हिस्से को काटकर निकाल दिया जाता था और  उसमें छोटे-बड़े मोटी लोहे की चद्दर के पैच रिवीटर के जरिए लगाये जाते थे. हम लोग बड़ी चादरें  बड़े कटर से कटवाते थे उसको दोनो ओर सूराख करते थे जिसे रिविट (लोहे के बोल्ट को बहुत गरम लाल  करके) जड़ते थे. ऐसी अावाज अाती थी जैसे बड़ी मशीनगनें चल रही हों. इस प्रक्रिया मेंं  जलते हुये लोहे के कण हाथ, गर्दन, सर  अादि पर  पड़ते थे और  जला देते थे.  
अक्सर लोहे से कटने के कारण जगह जगह निशान बान जाते थे जिससे अक्सर टिटनेस का इंजेक्शन लगता था ताकि इंफेक्शन न हो जाये। 
मुझे स्मरण है कि हम जब रेलवे में काम करते थे तो पिताजी और मेरा खाना साथ लाते थे. मध्यावकाश के समय एक घंटे का अवकाश होता था. पिताजी मुझे पराठे अंगीठी में सेंक कर देते थे. बहुत सुखद लगता था.  मैं उनके पास दस मिनट पहले आ जाता था और दोपहर का लंच  करके  इस एक घंटे के अवकाश में वहां मजदूरों के पुस्तकालय में अखबार-पत्र-पत्रिकायें पढ़ने जाया करता था उससे मुझे बहुत सुकून मिलता था.

चिकित्सक के रूप में सेवा 
डॉ बृजमोहन लाल शुक्ल समाजसेवी के तौर पर चिकित्सक थे. रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर थे अतः वह डाक्टर के तौर पर सीमित काम कर सकते थे. वह मिल रोड मवैया, लखनऊ में गांधी मेडिकल हाल में शाम को रेलवे की नौकरी से लौटने के बाद प्रेक्टिस करते थे. उनके साथ कुछ वर्षों तक स्व श्री रामाश्रय त्रिवेदी जी भी बैठते थे. मेरे डिग्री कालेज के सहपाठी मित्र  नरेंद्र दुबे मवैया में अाज भी  रहते हैं जिनके घर के सामने मंदिर के प्रांगण में गांधी मेडिकल हाल हुआ करता था. 
 त्रिवेदी जी की बहू और पोती अपने ननिहाल अलीगंज में रहती हैं जिनसे मिलने मैं होली २०१६ में संजय मिश्र के साथ गया था. 
पिताजी के पास अक्सर पास पड़ोस के लोग अपनी बीमारी पर दिखाने  और दवा लेने  तथा  रिसिप्ट और मेडिकल लिखाने आते रहते थे. वह लोगों की  निशुल्क और कम पैसे में ही सहायता कर दिया करते थे. 
मेरे पिता मुझे चिकित्सक और मेरे बड़े भाई को इंजीनियर बनाना चाहते थे पर ईश्वर को और ही मंजूर था मैं पत्रकार और लेखक बन गया और बड़े भाई चिकित्सक बने तथा बीच वाले भाई श्री रमेशचन्द्र शुक्ल पुलिस (पी ए सी) मेंं कार्यरत रहे. 

कोई काम बड़ा या छोटा नहीं होता  
कोई काम छोटा और बड़ा नहीं होता यह मेरे पिता से सीखना चाहिये।  आर्थिक रूप से परेशान पिताजी ने किसी प्रकार के काम करने में कोई शर्म नहीं की और मेरी माँ ने उनका भरपूर साथ दिया। 
पहले मेरे पिता मिल रोड मवैया, लखनऊ में गांधी मेडिकल हाल में चिकित्सा की प्रेक्टिस करते थे जिससे उन्हें कुछ आय भी हो जाती थी पर अपने मित्र  श्री रामाश्रय त्रिवेदी जी के अनुरोध पर मेरे पिता ने न चाहकर भी त्रिवेदी जी की सहायता के लिए  गाँधी मेडिकल हाल और प्रेक्टिस छोड़कर उन्हें सौंप दी थी. उसके बाद उन्होंने क्या-क्या नहीं किया।
अपनी नौकरी के बाद पार्टटाइम राखी-कोयले के काम मेंं मॉ की मदद करते और  रेलवे मेंं अपने मित्रों को लाटरी के टिकट बेचकर अपना जेबखर्च चलाते थे।  कभी-कभी पिताजी मुझे भी लखनऊ के ओडियन सिनेमा के पास 'अग्रवाल लाटरी' से लाटरी के टिकट खरीदने के लिए भेजते थे. वह भांग का सेवन भी करते थे और उन्हें विश्वास था कि मैं भांग का सेवन नहीं करता और न करूंगा अतः वह मुझे बचपन में नाकाहिंडोला, लखनऊ में भांग लेने भेजते थे.

समाजसेवी 
मेरे पिताजी के चिरपरिचितों ने बताया कि पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग, लखनऊ में पुराने लोग सभी याद करते हैं. वह निस्वार्थ भाव से  सेवा करते थे और किसी की भी पीड़ा को सुनकर दुखी होते थे और उसके साथ चल देते थे जबकि वह स्वयं गरीब थे. 
पिताजी के बारे में मैंने प्रतिष्ठित व्यक्ति और मेरे पिताजी के समकालीन श्री चावला जी से बात की जो ४८/५ पुरानी  श्रमिक बस्ती में रहते हैं और रेलवे से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं.  श्री चावला जी ने बताया कि आपके पिताजी बहुत शालीन व्यक्ति थे. जब डॉ बृजमोहन जी यहाँ  कोआपरेटिव सोसाइटी, पुरानी लेबर कालोनी में मंत्री चुने गये थे तब उनसे अक्सर मिलना होता था. चुनाव के पहले भी मेरे पास आये थे. वह श्री शोभनाथ सिंह जी के मित्र थे और उनका भी बहुत सम्मान करते थे जो कभी इसी सोसाइटी में अध्यक्ष चुने गये थे और यहाँ के सम्मानित व्यक्ति थे.  मैंने श्री चावला जी से एक अन्य समाजसेवी श्री भगत जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वह उन्हीं के ब्लाक में नीचे वाले घर में रहते हैं. मैं भगत जी से मिलने गया और प्रणाम किया और उन्हें बचपन में ईमानदारी और दया की शिक्षा देने के लिए धन्यवाद दिया और आभार व्यक्त किया।  पता चला है कि अब भगत जी नहीं रहे उन्हें सभी बच्चे और युवा पापा जी कहकर पुकारते थे. भगत जी ने पूरी कालोनी में वृक्षारोपण, सत्य बोलना और जीवों पर दया करना सिखाया था और उनके द्वारा लगाये हुए कुछ पेड़ आज भी उनकी याद दिलाते हैं. 

पिताजी छुआछूत नहीं मानते थे 
मैंने बचपन में देखा था कि वह छुआछूत नहीं मानते थे. यदि मैं हिन्दू धर्म के अलावा किसी धर्म के कार्यक्रमों में कभी जाता तो उसका कभी भी बुरा नहीं मानते थे जबकि मेरी दादी गधा छू जाने के बाद और शमशान से वापस आने के बाद बिना नहाये घर में घुसने नहीं देती थीं चाहे कितना जाड़ा क्यों न हो. उस समय गरम पानी से नहाने का चलन नहीं था अतः ठन्डे पानी से नहाने में बहुत जाड़ा लगता था.

हर धर्म के मित्र 
पिताजी के हर धर्म के मित्र थे. हिन्दू, मुस्लिम और सिख सभी धर्मों से उनके मित्र थे. ईदगाह के पास घर होने की वजह से उनके मित्र ईद और बकरीद के दिन जब नमाज पढ़ने के लिए ईदगाह अाते थे तो पहले वे अपनी साइकिलें और स्कूटर खड़ी करने आते थे. 
जब उन्होंने ८-मोतीझील पर दुकानें बनवाईं तब उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों को ही दुकाने किराये पर दीं थी. तथा जिन्हें लोग छोटी जाति  का समझते थे पिताजी मेरी तरह उनके साथ-उठने बैठने में कोई परहेज नहीं करते थे. बचपन में पिताजी हर साल २४ घंटे के लिए अखण्ड रामायण का पाठ अपने घर पर रखते थे और दूसरों के घर भी पढ़ने स्वयं भी जाते थे और हम लोगों को भी भेजते थे. 
बाद में उनका कहना था कि रामायण पाठ से ज्यादा जरूरी किसी की मदद करना और सेवा करना है. 

पुनर्विवाह के पक्ष में 
यदि किसी लड़की की परिवार में शादी के बाद विधवा हो या तलाग हो या अन्य कारण हो तो पिताजी लड़कियों के भी पुनर्विवाह के पक्ष में थे. मेरी बड़े चाचा की बेटी सरोज के पुनर्विवाह का पिताजी ने समर्थन ही नहीं किया बल्कि उसे संपन्न भी कराया।  आज सरोज के दो बेटे और दो होनहार बेटियां हैं और उनकी दोनों बेटियों की शादी हो चुकी है. 

अवकाशप्राप्त करने वाला दिन पिताजी के लिए यादगार दिन  
पिताजी अपने रेलवे के कार्य से बहुत जल्दी सेवा निवृत्त हो गए थे. उस समय अवकाशप्राप्त करने की आयु  ५८ होती थी।  उनके अवकाशप्राप्त की खुशी में  हमने एक कवि सम्मलेन का कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें स्थानीय कवी मौजूद थे. इस कार्यक्रम में मेरे छोटे चाचा श्री राम गोपाल, शिव नारायण मिश्र, पिता के मित्रगण: श्री सत्य नारायण त्रिपाठी, शिवशंकर मिश्र, रामाश्रय त्रिवेदी और बहुत से मित्र आये  थे जिसमें कुछ परिवारजन भी आये थे. वह उनके लिए एक बहुत बड़ा दिन था. हालाकिं एक दुर्घटना हो जाने के कारण उन्हें बहुत दुःख भी हुआ था
जिससे कार्यक्रम में थोड़ा व्यवधान आ गया था. 
सेवा निवृत्त होने के पांच वर्ष बाद हम सभी को छोड़कर दुनिया से चल बसे थे.  उनकी बहुत सी यादें हैं जिन्हें सही तारीख और स्थान की पुष्टि के अभाव में नहीं दे पा रहे हैं. 

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