बुधवार, 25 जनवरी 2017

जो हरे-हरे थे, वे नोट जल रहे हैं.--सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , Suresh Chandra Shukla25.01.17, Oslo, Norway



श्री राज मिश्र के होनहार पुत्र, राज मिश्र, स्वयं मैं और डॉ राज गुप्ता उन्हीं के निवास न्यूयार्क में 
जो हरे-हरे थे, वे नोट जल रहे हैं.
 --सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
इस वर्ष की विदाई,
वह शुभ घड़ी आयी।
नव वर्ष है चुनौती,
वह साथ लिए आयी।

नोटबंदी आयी ऐसे,
खुल गयी पोल भाई।
काले और उजले में 
सब बाँटते मलाई।

कुछ की खुली कलई,
कुछ के बंद खाते।
सब कुछ देख रहे हैं
यह साल जाते-जाते।।

हजार हुए हैं खारिज
पांच सौ की विदायी।

जिनके हैं बंद खाते,
करवट बदल रहे हैं.
अब सारी देनदारी,
कार्ड से कर रहे हैं.

जो कल था करना,
वह आज कर रहे हैं.
नकदी मुक्त भारत,
दिशा बदल रहे हैं..

चोरी -चकारी से अब,
टूट रहा है नाता
जबसे बैंक कार्डों से
भुगतान कर रहे हैं..
मोदी जी या राहुल
नेता दोनों खरे हैं ।
नोट दो हजार से वे,
दीखते हरे-भरे हैं..
एक विपक्ष में रहकर,
वह संज्ञान ले रहे हैं.
राजा हमारे बनकर,
वह उपदेश दे रहे हैं.
न भाषण से पेट भरते,
न रोटी कभी पकी है.
रोजगार कम हुए हैं,
ईज्जत कहीं बिकी है. .
विकास हवा महल के
बिन बने ढह रहे हैं.
ठिठुर रही है दुनिया,
अलाव जल रहे हैं.

कोई टिप्पणी नहीं: