शनिवार, 28 जनवरी 2017

बाबा तुलसी दास जी ने कहा है, "जाके पाँव न फटे बेवांयी वो का जाने पीर परायी।" -Suresh Chandra Shukla

 प्रवासी साहित्य अपनी गुणवत्ता के आधार पर अपनी  जगह  लेगा।  - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
प्रवासी साहित्य या विदेशों में लिखा जा रहा हिंदी और भारतीय भाषाओं का साहित्य अपनी गुणवत्ता के आधार पर अपनी  जगह लगेगा।  
"प्रवासी साहित्यकार भी आते हैं... .प्रजनन और राजनीति का क ख ग भी नहीं जानता-देश सेवा की तो एक दिशा होती है, सत्ता।" आज भास्कर अखबार में प्रेम जनमेजय जी का एक व्यंग्य छपा है. व्यंग्य अच्छा है.
मैं यदि लिखता तो यह भी लिखता "महात्मा गाँधी को हमारे प्रधानमन्त्री जी सबसे बड़ा प्रवासी मानते हैं और उन से बड़ा राजनैतिज्ञ कौन था, भारतीय और दक्षिण अफ्रीका के सन्दर्भ में." पैसा तो दूर गांधी जी वहां कमाया या प्राप्त धन  दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लाये।"
जब विश्व हिंदी सम्मेलन  होता है या कोई वैश्विक हिंदी साहित्य की बात होती है तो भारत के ही हिंदी रचनाकार सारा मूल्यांकन करते हैं, भारतीय प्रवासी रचनाकारों और संपादकों को दरकिनार किया जाता रहा है इस कारण  यदि प्रवासी साहित्य, साहित्यकारों, राजनैतिज्ञ और राजनीति में उनके योगदान को लोग नहीं जान पाते। स्वयं डॉ कमल किशोर गोयनका जी जिन्होंने प्रवासी साहित्य पर महत्वपूर्ण पुस्तक सम्पादित और प्रकाशित कराई थी उन्हें भी अमेरिका में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में बोलने नहीं दिया जा रहा था तब मैंने भी विरोध जताकर उन्हें अपना विचार रखवाने में लेखकधर्म निभाया था. जिन्हें सम्मेलन पत्रिका का सम्पादन करने को मिला था वही प्रवासी साहित्य और साहित्यकारों के बारे में नहीं जानते।
बाबा तुलसी दास जी ने कहा है, "जाके पाँव न फटे बेवांयी वो का जाने पीर परायी।"

कोई टिप्पणी नहीं: