बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व' मेरा दर्द है - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व' मेरा दर्द है - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
समीक्षक - माया भारती

हाल ही में साहित्यकार सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' का नया काव्य संग्रह ' प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व' विश्व पुस्तक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।
इस पुस्तक का लोकार्पण भारत के अनेक संस्थानों में हुआ है, जिनमें स्पाइल के प्रतिनिधि डा. एस के सेठी के कार्यालय जोरबाग दिल्ली, नागरी लिपि परिषद, गांधी संग्रहालय दिल्ली, प्रोफेसर कल्पना गवली की अध्यक्षता में जियाजी विश्वविद्यालय बड़ोदा गुजरात, प्रोफेसर शैलेन्द्र कुमार शर्मा के संयोजन में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन, मध्य प्रदेश और ओस्लो में भारतीय दूतावास में सचिव प्रमोद कुमार द्वारा हुआ है जिससे पता चलता है कि रचनाकार और पुस्तक पर साहित्यकारों और पाठकों की नजर पड़ रही है जो हिन्दी साहित्य के प्रसार के लिए गौरव की बात है।
13 मई 2019 को पुस्तक का लोकार्पण न्यूजर्सी
में अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में सम्पन्न हुआ 'प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व' में विदेश में रहकर किस तरह एक भारतीय प्रवासी अपने आसपास होने वाली घटनाओं से लेकर अपनी मातृभूमि के साथ-साथ विश्व में होने वाली घटनाओं का जायजा ही नहीं लेता उससे विचलित होता है। उसपर चिंतन करता है और वासुदेव कुटुम्भकम के भाव से प्रभावित होकर अपना दर्द और मानवीय संवेदनायें प्रगट करता है।
कवि ने अपनी कविता में कहा है 'कवि वही जो समय का सच कहे, किन्तु दोषी भावना से बच रहे।'
इसी पुस्तक में पृष्ठ 69 में 'शीर्षक शब्दों को बहलाने लगे हैं' कविता की शुरू की पंक्तियाँ देखिये:
'कविता को पर्वतों ने नहीं झुठलाया।
नदियों ने नहीं नकारा।
जनता को देर से पता चला कविता का मतलब,
पर सिपाही को पहले।
इसी लिए कवि की हो गयी गिरफ्तारी।'
इसी कविता की अंतिम पंक्तियां देखिये:
'आतंकवादियों के शिवरों से
मुक्त होगी असली कविता।
बन्दूक से भरोसा उठ गया है जनता का
इंसानियत की तरफ झुक रही है जनता।
चुनाव में चुनते समय
नेता को शीर्षक बनाती है कविता।
शीर्षक शब्दों को बहकाने लगे हैं,
शीर्षक को झुठलाने लगी है कविता?'
पृष्ठ 79 में 'नया मदारी आयेगा' शीर्षक से कविता की आरंभिक पंक्तियाँ देखिये जब आज चुनाव का माहौल है कितनी सजीव लगती हैं ये पंक्तियाँ:
'बरसात में जगह-जगह
कुकरमुत्ते उग आये हैं,
चुनाव आ गया है।
नेता सब जगह दिखाई दे रहे हैं,
चहुओर गूँज रहे हैं चुनाव में नारे,
लोग बंद कर रहे हैं अपने किवाड़ें (दरवाजे)।
यहाँ जनता की समस्याओं से जैसे -जैसे नेता दूर जा रहे हैं जनता में निराशा का भाव आने लगा है। जनता में जागरण और जनसेवा और श्रमदान का भाव करने के लिए कई कवितायें इस ओर इशारा करती हैं।
यूरोप में रोमा लोगों का हाल बेहाल है। अपनी संस्कृति अपनाये रखकर ज्ञान और रोजगार के लिए आवश्यक नयी चुनौतियों को ना अपनाने के कारण बेरोजगारी और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हर यूरोपीय देशों में रोमा लोग भटक रहे हैं और अक्सर उन्हें भेदभाव का शिकार भी होना पड़ता है। 'यूरोप में रोमा बंजारे' कविता पृष्ठ 50 में तीसरे पैराग्राफ में वर्णन है:
'नयी चुनौती हर दिन आती,
दिन में तारे चाँद दिखाती।
गर्व हमें कि हम रोमा हैं,
बेशक हम दुनिया में फैले,
संस्कृति का हम मोल चुकाते।
दुनिया बदली हम नहीं बदले,
नहीं बदले हैं तौर तरीके,
इसीलिए हमेशा सबसे पीछे।'
दूसरी कविता 'ओस्लो में भीख मांगते रोमा बंजारे' पृष्ठ 81 में आरंभिक पंक्तियों में उनकी स्थिति का वर्णन है:
'ओस्लो में अपने रोमा हैं,
वह भीख माँगते मिल जायेंगे,
संगीत से अपनी, हमको बहलायेंगे।
हाथ बाँचते, हस्तकला में कभी निपुण थे ,
भारत से आये यूरोप के
नए परिवेश में क्या ढल पायेंगे?'
चाहे बर्फीला मौसम हो, पानी बरस रहा हो रोमा लोग ट्राम स्टेशन के बाहर या माल के बाहर हाथ में कप, गिलास लिए आपसे भीख मांगने की याचना करते मिल जाएंगे। कितने मजबूत हैं इनके शरीर और सहन करने में इनका जवाब नहीं। इसी पृष्ठ पर पांचवे पैराग्राफ की कुछ पंक्तियाँ देखिये:
'बर्फ गिर रही हो या बर्षा हो,
क्या सावन, पतझड़ सब शर्मिन्दा हैं,
हाँ मानव हैं इसी लिए ज़िंदा हैं।'
'दिल्ली में हवा गर्म है' शीर्षक कविता में चुनाव की आहट स्पष्ट देखी जा सकती है,
'दिल्ली में चले गुलाल है,
दुश्मन से भी प्यार है.
मतदाता से बड़ा दुलार है,
क्या द्वार पर खड़ा चुनाव है?

गरम हवा पर शरद का दबाव है,
राजनीति की जहाँ बयार है,
पीटकर ढाल दे जो सांचे में,
गर्म तवे का कबसे इन्तजार है?'
कवि देश लौटने की बात करता है और अपनों के सुख दुःख बाँटना चाहता है। पृष्ठ 35 में 'स्वदेश से आयी चिट्ठी' कविता के पांचवे पैरा में देखिये:
'खुशियाँ पैसों से न आयें,
अम्मा का दुःख दर्द बटायें।
बीमार वृद्ध वह राह निहारे,
उनके बेटे लौट के आयें।
भूल न जाना कसम की गाँठी,
तुम भी हो अम्मा की लाठी।
नींव भरी ममता की गिट्टी,
लो स्वदेश से आयी चिट्ठी।

'झूठ ने इतने महल गिराये,
पहले मुझसे आँख मिलाये।
मत करना ऐसा समझौता,
बाद में तू खुद से कतराये।'

सीमाओं से परे अनेक देशों की स्थितियों पर कवितायें इस संग्रह में हैं जैसे: डेनमार्क की नन्ही सागर महिला पर कविता 'जलपरी', टर्की में शरणार्थियों की समस्या पर 'तनावपूर्ण रिश्ते', जर्मनी पर 'बर्लिन की दीवार गिरने की रजत जयन्ती' शीर्षकों पर सीमाओं को नकारती हुई नयी हदें पार करती है।
आज का प्रवासी साहित्य नॉस्टेलेलिया को नकारता हुआ संकीर्णता से परे उन विषयों पर भी रचनायें दे रहा है जहाँ पहले दृष्टि कम जाती थी।
इस संग्रह में न भूलने वाली एक नाटकीय ट्रैजडी वाली आइसलैंड पर कविता 'ध्रुवीय लोमड़ी का प्रेम' एक अनोखी कथा का बयान करती है, जैसे हम जाने -अनजाने न चाहते हुए भी प्रेम स्वीकार करते हैं।

महापुरुषों को समर्पित कविताओं में मुंशी प्रेमचंद पर 'कलम के सिपाई अमर ही रहेंगे', 'अज्ञेय जी को श्रद्धांजलि', महात्मा गांधी पर 'बापू को कोटि नमन' और 'गाँधी के बेटों का सपना', 'आंबेडकर की राह पर', नोबेल पुरस्कार विजेता और संयुक्त राष्ट्र संघ में रहे हाई कमिश्नर पर 'कैलाश सत्यार्थी के संग' आदि कवितायें कवि के मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाती हैं।
रचनाकार उन शहरों को नहीं भूल पाता जिन्होंने लेखक के ह्रदय में जगह बनायी है अतः वहाँ के आकर्षण और स्थितियों को कैसे भूल सकता है। इन नगरों के हवाले से कवितायें हैं, जैसे दिल्ली,ओस्लो, लखनऊ और भोपाल आदि.
जब तक देश का हर व्यक्ति अपने कीमती समय से श्रमदान और दूसरों के लिए नहीं कार्य करेगा हम अपना पर्यावरण नहीं बचा सकते, अतः प्रदूषण बढ़ता जायेगा। केवल भारत में हर साल लगभग बारह लाख लोग प्रदूषण से मरते हैं और पंद्रह लाख से अधिक यातायात में मरते हैं।
कवि सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' कहते हैं कि बच्चों और युवाओं के लिए जो आने वाली पीढ़ी को जितना सुन्दर समाज छोड़कर जायेंगे उसे वे तभी और सुन्दर बना पायेंगे। इसलिए कवि की कविताओं में जहाँ साक्षरता प्राण से भी ज्यादा जरूरी और जनसंख्या तभी कंट्रोल हो सकेगी।
'प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व के अनेक गीतों में नीरज, बच्चन याद आ जायेंगे गीतों के शीर्षक हैं:
'जीवन की भागदौड़ में, कब भूल हुए कब चूक हुई', 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ प्रिय', 'जो बात कही न जाती है, वह बात सुनी न जाती है', 'स्वदेश से आयी चिट्ठी' 'जाने वाले देर हो गयी' और 'ओ कमलनयन पुलकित तन मन पूनम का चाँद लजाती हो' आदि।
निराला और धूमिल आज भी प्रवासी कविता में सामयिक हैं. इन्हें नए कैनवास में इस संग्रह की अनेक कविताओं में वर्तमान परिदृश्य के साथ आसानी से देखा जा सकता है।
पृष्ठ 51 में 'जन कविता' शीर्षक कविता के पांचवें पैरा में पढ़िए,
'अगर हम राजनैतिक जागरूक नहीं,
भेड़ों की तरह, फिर से हाँके जायेंगे।
नोट, धर्म जाति पर कभी वोट न देना,
वफ़ा के नाम पर कुत्तों सा मारे जायेंगे।'

पृष्ठ 74 में 'देश बचाना जरूरी है' कविता में आरम्भिक पंक्तियाँ में पढ़ें विचारशील पंक्तियाँ:
'हवाई महल बनाना मेरा काम नहीं,
दलित जहाँ पर मरे वह हिन्दुस्तान नहीं।
जनता के प्रतिनिधि जहाँ बलात्कारी हों,
ऐसे शासन में झुकता सच्चा इंसान नहीं।'

'सुमनों से सीखा था मैंने भेदभाव न करना।
काँटों से सीखा मैंने,अपनी यादें ताजी रखना।'

भाषा विषय के अनुसार, नए प्रतीकों और उपमाओं का प्रयोग कविता को माधुर्य से भरता है। कहीं भाषा का प्रवाह कहीं टकराव। कवितायें नदी की तरह रास्ते/समय में आनी वाली रुकावटों का वर्णन करते निरवरत बहती चली जाती है। लेखक की दूसरी कृति की प्रतीक्षा रहेगी।
पुस्तक: प्रवासी का अन्तर्द्वन्द्व
लेखक: सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
पृष्ट संख्या: 100
मूल्य: 150 रुपये
प्रकाशक: विश्व पुस्तक प्रकाशन, 304 ए, बी जी-6, पश्चिम विहार, नयी दिल्ली- 63



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