रविवार, 29 अगस्त 2010

न रात गयी न बात गयी. - शरद आलोक

न रात गयी न बात गयी-शरद आलोक

सपनों का नगर, जीवन का सफ़र,
जितने आतुर, उतनी हलचल।
पोखर मचले, बहने को विकल
स्मृतियों की कड़ी, माले में पुरी,
गांठों में बंधी, ऐसी उलझी,
साँसों में अटक प्राणों में फंसी।

मन पोखर, तन नदिया का जल,
शांति भंग करती हलचल,
भोर हुई बरसात हुई,
आ गयी बाढ़, सब मिले विकल,
पोखर फैला, नदिया बिहंसी,
पोखर-नदिया- सागर से मिल।

दिन डूबा तब रात हुई,
न रात गयी न बात गयी।
सुख के सागर दुःख के बादल,
पीर नयन का गंगाजल,
जब तक साँसें तब तक पीड़ा,
जब जीत मिली तब हार गयी।

बस एक रात की बात हुई
अनगिनत रातों का कहना,
लेनदेन व्यापार जहाँ,
कितना लेना कितना देना।
हमने सीखा वह प्रेम नहीं
जिसने गिनकर देना सीखा।

आयु घटती, जीवन बढ़ता,
जीवन परिधि, वृत्त समरसता.
बाढ़ बनाये पोखर नदिया,
बहती धीरे सागर की तरफ,
नदियों के पदचिन्हों पर सागर
उलट बहे , झरना बनकर।

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