मंगलवार, 25 जनवरी 2011

२६ जनवरी १९८०, ३० बरस पहले नार्वे आगमन- कितना सुख, कितनी चुभन -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

कानपुर में राष्ट्रीय गोष्टी में सम्मिलित हुए
२६ जनवरी १९८०, ३० बरस पहले नार्वे आगमन-
कितना सुखन, कितनी चुभन -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


३ जनवरी २०११ को विधान सभा लखनऊ उत्तर प्रदेश में राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान में दिनेश चन्द्र अवस्थी के नेतृत्व में सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' को सम्मानित किया गया

२३ जनवरी १९८० को जब लखनऊ, उत्त्तर प्रदेश, भारत से अपने मित्र आनन्द प्रकाश और रमेश कुमार के साथ तलवार स्टूडियो में चित्र खिंचाने गया। मन में तरह -तरह के विचार उठ रहे थे। विचारों की झील में कितने विचारों ने भविष्य की (यानि झील की) गहराई जाननी चाही थी और उन विचारों की झील में अनेकों वैचारिक कंकड़ फेके थे। बुलबुलों और परिधि का विस्तार देखते -देखते कितनी ही बार मन -स्थली के विचार बिना कुछ कहे सुने शांत हो जाते थे। बातचीत तो मित्र से कर रहा होता था पर मन में कुछ और ही ज्वार-भांटा चल रहा था। अनिश्चितता की ओर, एक नए सफ़र की ओर एक नए परिवेश में सब कुछ नए सिरे से शुरू करने की, अनजान पथ की ओर चलने की ओर अग्रसर होना है जिसका पथ प्रदर्शक कोई और था।
बस इतना मालुम था ज्ञान या धन के रूप में मेरे पास था मेरा काव्य संग्रह 'वेदना' जो १९७६ में प्रकाशित हुआ था। स्नातक की शिक्षा और श्रमिक शिक्षक की पढाई। वैसे तो रिवीटर और फिटर जैसे स्किल्ड कार्य भी मुझे रेलवे की लगभग आठ वर्ष की नौकरी ने दिए थे।
समाज सेवा और जन-संपर्क मुझे समय की मांग ने सिखा दिया था। लखनऊ के उस समय के अनेक सभ्रांत व्यक्तियों से मुलाकात होने के बावजूद तीस वर्षों में बहुतों से नहीं मिल पाया जिनसे दोबारा मिलकर अवश्य ख़ुशी मिली होती। हाँ दीदी भारतीय गांधी- जगदीश गाँधी , क्रन्तिकारी दुर्गा भाभी, शचीन्द्र नाथ बक्शी, राम कृष्ण खत्री और गंगाधर गुप्ता जी से अच्छी जान -पहचान हो गयी थी। पत्रकारों में शिव सिंह सरोज और अशोक जी भी स्वतन्त्र भारत से जुड़े थे और उनके संपादक भी थे उनसे भी कभी-कभी मिलना होता था जो कभी-कभी मेरी रचनाएं भी छापते थे।
प्रेम तो विवाह के बाद छूट ही जाता है, या बंधन में बंध जाता है। आप केवल सौन्दर्य देख सकते हैं पर उसे स्पर्श नहीं कर सकते। ६ मई अतः १९७७ को विवाह के उपरांत जो महक और सौन्दर्य मुझे लुभाती थी वह महादेवी जी की 'नीर भरी दुःख की बदली' की तरह 'वेदना' बनकर रह गयी। जो १९७६ में ही मेरे जीवन में आ गयी थी। और आगे चलकर दिन का सूरज भी उगता रहा और रात भी ढलती रही और मन और प्रखर और निखरता रहा। अब अमिया रुपी मन परिपक्व आम बन गया था और रजनी के रूप में प्रगट हुई। रजनी की सुध-बुध पूछने चाँद -तारे तो आते ही हैं पर जब बरसात के दिन होते हैं, अमावस की काली रात होती है, जब कुछ भी नहीं सूझता तब अपनी जान की परवाह न करके जुगनुओं के झुण्ड अपनी चमकने - प्रकाशित करने की ताकत दे जाते हैं।
१९७० में लिखी पंक्तियाँ आज जाने कैसी अजीब सी लगती हैं:
'मेरे ये अधूरे स्वप्न साकार नहीं होते,
कैसे समझाऊँ मैं पतवार नहीं होते।
कैसी यह कीरति है, तेरे जग में भगवान्,
जो शान्ति पुजारी है , उसको देते तूफ़ान
'
आज जब अहसास होता है की यह शान्ति और तूफ़ान खुद का बनाया हुआ है, तो हैरानी होती है और इसे समझते-समझते ३० साल व्यतीत हो जाते हैं। अब सौन्दर्य से भय नहीं लगता न ही संकोच। प्रेम कोई सौदा नहीं की ले देकर हिसाब साफ़ हो जाएगा। सौन्दर्य को समझने के लिए उदार-पवित्र स्वच्छ मन चाहिए और उसकी शोभा या पूजा करने वाला द्वीप जलाने वाला भी चाहिए।
'सौन्दर्य को देखकर उसको नकारना
जैसे की मंदिर में जाकर द्वीप न जलाना॥ '

मात्र केवल स्पर्श से छुई-मुई का पौधा/बिरवा भी सिकुड़ जाता है। पश्चिम-पूरब के मध्य ये सूरज ही है जो इसे बांधे या जोड़े रहता है चाहे इसे दो दिशाएं समझें या दो संस्कृतियाँ।
तीस वर्ष पहले का लखनऊ, जिसे मैंने अपनी नजरों से देखा था। उसकी मिटटी पर ली हुई हर सांस गहरी थी। मिट्टी की अपनी महक होती है जिसे जमीन पर ही चलकर ही सही मायनों में महसूस किया जा सकता है।
कडवे -मीठे अनुभव किसके जीवन में नहीं आते। बचपन की छेड़छाड़ से कौन दुश्मनी मानता है। कौन दुनिया में ऐसा है जिसका मन कभी पुलकित न हुआ हो। मौसम की हवा से वह आंदोलित नहीं हुआ हो। दुनिया में कौन व्यक्ति ऐसा है जो बोल सकता हो और उसने कभी कोई गीत न गुनगुनाया हो। जो बोल भी नहीं सकते वह मन से गाते हैं जिसे कम से कम वे तो सुन ही सकते हैं। जो देख नहीं सकते वह मन की आँखों से प्रायः नैनों वालों से अधिक महसूस कर सकते हैं और बहुत समय तक वे उसे तरोताजा रख सकते हैं।
हाँ तो मैं कह रहा था। २३ जनवरी का दिन था। कुछ लोगों ने मुझे अनौपचारिक विदाई दे दी थी। मोहल्ले और रेलवे के सवारी और माल डिब्बा कारखाने, लखनऊ के साथियों ने शुभकामना व्यक्त की थी और मुझे न भूलने का वायदा किया था। मुझे आज भी याद है, रेलवे में रात को ट्राली से रेल के डिब्बों को मरम्मत के लिए विभिन्न पटरियों पर स्थानांतरित करना होता था। एक व्यक्ति चालक था और दो लोग जो हुक लगाते थे और ब्रेक लगाते थे। मोटे -मोटे रस्सों जैसे तार जिनमें जगह-जगह तर चुभते भी थे तेजी से घसीटकर डिब्बे के पीछे फ़साना होता था। कभी कभी-कभी सवारी डिब्बे के नीचे जाकर ऊपर से ट्राली द्वारा धीमे धीमे छोड़ा जाता था तब उसके नीचे स्टैंड की तरह ऊंचाई के चौपाये टिकते थे जिसपर डिब्बा मरम्मत के लिए रक्खा जाता था। जरा सी लापरवाही हुई नहीं की दुर्घटना घाटी। ये सारे कार्य बिना दास्ताने पहनकर होते थे। चाहे सर्दी हो या गर्मी या बरसात। ट्राली का कार्य रुकता नहीं था। ढाई मन की कमानी उठाने की एक अजीब कला थी। जो झटके से दो लोग मिलकर एक पटरी की सहायता से उठा लेते थे जिसे डिब्बे में फंसा देते थे जो पहिये पर टिकने के लिए तैयार हो जाती थी।
भारत छोड़ने के पहले मेरी कवितायें यदा-कदा पत्र पत्रिकाओं में छपा करती थीं जिससे मुझे मोहल्ले और समाज में हर जगह ईज्जत भी मिलती थी भले ही लेखन शैकिया करता था।
नार्वे आकर अंग्रेजी का ज्ञान न होना और चालाक न होना रोड़ा बना। सीधे-साधे आदमी जल्दी ही दूसरों पर विश्वास कर लेते हैं। जब वे समझते हैं तब अक्सर देर हो चुकी होती है। बड़े भाई श्री राजेन्द्र प्रसाद के साथ जब रहना शुरू किया तो सोचा था की बहुत दिनों का साथ रहेगा। भाई ने अपने पत्रों में जब यह जिक्र किया था की वह मुझे और माँ को बहुत मानते हैं तब लगता है किसी की नजर लग गयी जो कभी भी हट न सकी। एक फ़िल्मी गीत है जिसके बोल कुछ इस तरह हैं,
' सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी'
हम भोले-भाले लोग बहत जल्दी दूसरों पर सभी कुछ लुटा देते हैं पर आज अधिकाँश लोग केवल हमको अपनी कसौटी में रखकर देखते हैं और ये कसौटियां प्रायः बहत कमजोर आधारशिला लिए होती हैं। जीवन भर कमाकर भी बहुतों के पास कुछ नहीं रह जाता। न ही वह दूसरों को दे सकते हैं चाहे ज्ञान हो चाहे धन या समय। केवल इमोशनल ब्लैकमेल हो जाते हैं उन अपनों से जिनसे वे घिरे रहते हैं।
इस दुनिया में कौन अपना है कौन पराया? यह जान पाने के लिए शायद पूरा जीवन लग जाए पर जानना मुश्किल है। जब ठोकर लगती है और जिनसे उम्मीद भी नहीं होती, चिर परिचित हों या अनजान साथी वे बहत कुछ करके, बहुत कुछ देकर चले जाते हैं। कभी-कभी हम उनको तब पहचानते हैं जब वे दूर हो चुके होते हैं। मुझे बहुत से ऐसे अनजान लोग मिले जो कुछ मिनटों में ही मित्र जैसा साथ या स्नेह दिया। इन लोगों में बहुत प्रसिद्ध लोग भी शामिल हैं और बहुत मामूली लोग भी।
बिन मेहनत जब मिले, तो काहे करिए काज।
बोया था किसने यहाँ, पर किसको मिला अनाज।।
जब मैंने कुछ की मदद इस लिए की ताकि वे स्वयं स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनें और दूसरों और अपनी सहायता खुद करें तो वे समझने लगे की बिना मेहनत जब सहायता मिल गयी जो उनकी किस्मत से मिला है। तब केवल हैरानी ही नहीं होती बल्कि उदारता की खिल्ली उड़ता देख खेद भी होता है । यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो यह सोचना भी नाजायज है की आपने उसकी सहायता की है। प्रेम में हमेशा दिया जाता है। पर जब आपको किसी से प्रेम न हो केवल इंसानियत का तकाजा इसलिए हो की आप परिचित भर ही हैं या वह जरूरतमंद है।
'मिटा नहीं सकता वह दीपक
ह्रदय ने जिसे जलाया है।
प्रेम में कभी नहीं यह सोचें
क्या खोया क्या पाया है?'
24 जनवरी को जब प्रातःकाल लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर मुझे विदा होना था तब मुझे दिल्ली एयरपोर्ट तक छोड़ने मेरे पिता श्री ब्रिज मोहन, माताजी श्रीमती किशोरी देवी और जीजा जी डॉ गोविन्द प्रसाद तिवारी साथ गए थे। रेलवे स्टेशन पर लगभग २३ लोग छोड़ने आये थे। तीस वर्ष बाद आज पिताजी, माताजी, जननो जिज्जी, श्रीमती स्वतन्त्र , सधारी लाल मिश्र सभी दुनिया से चल बसे हैं। जो इस दुनिया में जन्म लेगा वह मृत्यु भी प्राप्त करेगा। अर्थात जो आया है वह एक दिन जाएगा। दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर मुझे भेजने नार्वे में निवास करने वाले प्रसिद्ध संगीतकार श्रीलाल अपनी पत्नी के साथ आये थे।
२५ जनवरी को मास्को में रुककर एक दिन बाद ओस्लो के फोरनेबू एयरपोर्ट पर २६ जनवरी को प्रातः दस बजे के करीब पहुंचे। मेरे भाई साहेब बहुत व्याकुल थे। क्योंकि मुझे पूछताछ के लिए पुलिस ने रोक लिया था। थोड़ी देर बाद मैं बाहर आया। मेरे भाई के साथ देववृत घोष और साहेब सिंह देवगन थे। पहले जाड़े के बूट /जूते और जैकेट खरीदी। अपनी बड़ी हुई दाढी बनाई। जब मैं ओस्लो आया उस दिन तापमान -२२ था। मेरे बाल बड़े थे और दाढी बढ़ी हुई थी। क्रिन्शो स्टुडेंट टाउन, ओस्लो आये जहाँ मेरे भाई रहते थे। स्नान करके तुरंत ओस्लो स्थित भारतीय दूतावास गए जहाँ गणतंत्र दिवस मनाने बहुत से भारतीय लोग जमा थे। मेरा परिचय दूतावास के लोगों और अन्य भारतीयों से कराया गया। फिर रात को एक अन्य नगर Drammen नगर में सरदार त्रिलोचन सिंह के घर पर मेरे आने पर पार्टी दी गयी थी। नार्वे में मेरा पहला दिन द्रामेंन नगर में व्यतीत हुआ। पहले दिन ही मैंने नार्वेजीय भाषा के अक्षर याद कर लिए थे।
आज तीस साल बाद फिर मैं भारतीय दूतावास ओस्लो में गणतंत्र दिवस पर जा रहा हूँ । बहुत सी खट्टी मीठी यादे मेरे साथ हैं तथा गर्व करने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति के लिए की गयी मेरी यहाँ से हिंदी में छपने वाली पत्रिकाओं 'परिचय' में १९८० से ८५ तक संपादन किया है और स्पाइल-दर्पण का सन १९८८ से संपादन कर रहा हूँ और इस तरह हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने लायक इतिहास बनाने में सहभागी हूँ।
आप सभी को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं।
फिर कभी इसकी ब्लॉग में अपने अनेक अनुभवों और आपबीती को आपके साथ साझा करूंगा। जय हिंदी। जय हिंद ।

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