बहुत दिन बाद मेरे शहर आये बस गुमसुम होकर,
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
कितना मुश्किल है हथेली पर सरसों जमाना,
उतना ही ममत्व भरा पानी का बर्फ बन जाना.
बहुत दिन बाद मेरे शहर आये बस गुमसुम होकर,
सन्देश सुनने और सुनाने का जब न मिला समय.
अपनी आँखों से दीदार भले किया हो जितना,
शहरियों की नजर से देखकर तो देखते,
कुछ नीम, कुछ पीपल कुछ बरगद बनकर
तपती धूप और बारिश में छाया देता.
बात और है कि जो छाया देते हैं
अपनी खातिर लोग कुछ जला देते हैं.
पर मेरा क्या बिगड़ता, बिखरता भू पर.
इसी से जन्मा था इसी में मिट जाता.
देख लिया ओस्लो परसों बहुत याद किया,
सामने से निकल गए पहचाना नहीं मुझको.
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