रविवार, 14 अगस्त 2011

'गौरया ( चिड़िया) बहिनी, भारत से रूठि के विदेस काहें चली आयीं. फिर से' लौटि आवा.' -शरद आलोक'


'गौरया ( चिड़िया)  बहिनी, भारत से रूठि  के विदेस काहें चली आयीं. फिर से'  लौटि आवा.'  -शरद आलोक'
कल के रक्षाबंधन की स्मृति को लिए २५ बरस पहले छूती हु सगी बहन का ओझल चेहरा तो स्पष्टता लेता रिश्ते में बदलाव ला चूका था. और एक तरफ जहाँ भारत छोड़ने का दर्द था तो दूसरी तरफ दो बहनों (डॉ. विद्या विन्दु सिंह और डॉ. कैलाश देवी सिंह) के   अहसास के रिश्तों के रक्षा बंधन के धागों   में   बंध   जाने के बाद चिड़िया की तरह कुंठा से मुक्त स्वच्छंद   उड़ने का अहसास हुआ. वहीं परसों पड़ोस की बहन तनवीर जो लाहोर और कराची से सम्बन्ध रखती हैं मुझे राखी बाँधने न आ सकीं क्योंकि उन्हें संदेह था कहीं मैं बुरा न मान जाऊं या राखी न बंधवाऊं, पर उनके स्नेह का उत्तर दे पाता  कि  उसके पहले अपनी कार को सही स्थान पर पार्क  करने चला गया था.

आज प्रातः नींद  अपेक्षा से अच्छी हुई थी. परसों  की थकान ने बहनों और भाभी शकुन्तला और मित्र डॉ. रामेश्श्वर मिश्र जी के  साथ ओस्लो की सैर के निर्णय ने मुझे चुस्त-दुरस्त बना दिया था.  
ओस्लो विश्वविद्यालय  का भ्रमण करने के बाद हम ओस्लो की मुख्य सड़कों पर निराला और नागार्जुन को याद करते हुए दीदी विद्या विन्दु सिंह जी को हम सबने एक मत से आधुनिक महादेवी (महादेवी वर्मा) का दर्जा उनकी रचनाओं और दूसरों की मदद करने की  प्रवृति के कारण दिया.
पक्षियों के प्रति स्नेह और लोक की अपने से ज्यादा चिंता ने हमारा सभी का ध्यान ओस्लो के सागर तट पर उन नन्ही-नन्हीं चिड़ियों (गौरया) की  तरफ दिलाते हुए विद्या विन्दु सिंह ने कहा, -' गौरया ( चिड़िया)  बहिनी, भारत से रूठि के विदेस  काहें चली आयीं. फिर से'  लौटि आवा.'  
मुझे अपनी माताजी की याद आ गयी जो आँगन में हमारे खाना बनाने की जल्दी से ज्यादा चिड़ियों को दाना डालना और चावल और दाल पछोरते हुए थोडा से अच्छे दाल-चावल को भी बिखरा देने पर अधिक ध्यान देती थीं.
और दादी को माता जी पर शक्ति का प्रयोग और सताने के बाद कभी-कभी उन्हें भी पुरानी लेबर कालोनी, ऐशबाग, लखनऊ के पार्कों में चीटियों को आटा छिड़कना  नहीं भूलती थी जो बाद के वर्षों में सुल्तानपुर में बस गयी थीं, जिन्हें दिवंगत हुए   दो दशक से जयादा बीत चुके हैं.
चिड़िया    की बात ध्यान से अभी नहीं गयी थी. दीदी की बात याद आयी जो उन्होंने ओस्लो के पार्लियामेंट (स्टूरटिंग ) के सामने गुजरते हुए जारी रखते हुए  एक लोकगीत सुनाया, उसके  बोल इस तरह थे - 'निबिया के पेड़ जिन काटा ए बाबा, निबिया    चिरैया बसेर.
बिटियाँ जिन दुःख दिया ए बाबा, बिटिया चिरैया  की  नाय. दाना  चुगिय  उड़ी  जायँ.

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