रविवार, 10 फ़रवरी 2019

सिखा उत्सवो की अर्चना - सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक' Oslo


सिखा
उत्सवो की अर्चना

सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक'

क्यों न दूँ दुआयें मैं, द्वीप का धुंआँ सही.
दूज के तिलक का मैं, स्नेह का कुआँ सही.
रोक सकता कोई नहीं, हवा का रुख कहीं.
महल -झोपड़ी से उठा हुआ धुंवाँ सही.

ठग लिया बहुत मुझे साहूकार से राज्य ने,
विधि लिखा मिट गया, जब भाग्य लिखा आपने
जब नेतृत्व ढोलपोल है, तब बदलता भूगोल है.
आँख जब न मिला सके, तो बात गोलमोल है.

शेर की खाल में, जब दहाड़ता प्रधान है.
जन के मुख कौर छीन, तीसमारखाँ महान है?

डरूं नहीं कहूँगा सच, तुम सागर या पहाड़ हो.
गिर पड़े हैं राज-काज, जनता की दहाड़ से.
इसीलिये कोई राह में, कभी दिखा मशाल में.
प्रात हो या साँझ हो, जीवन में उबाल हो.
न हौंसले थकें कभी, बढे कदम रुके नहीं।
बदलना नियति को है, ये हौंसला चुके नहीं।

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