मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

माला फेरने से न ईश्वर मिलते हैं न रोटी - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

 

माला फेरने से 
न ईश्वर मिलते हैं न रोटी।
आप किसी से बात करते समय किस बात पर जोर देते हैं। क्या वजन में या भाव में?
जब कोई नजर अंदाज करता है,
अर्थ का अनर्थ निकल जाता है।
जब मंच से या बैठक में 
वह जोर आवाज में कहता है
बड़े आत्मविश्वास से,
कि आप सब सहमत हैं
असहमति का विद्रोह
कब तक मौन बैठेगा
अब तो माला फेरने से
न ईश्वर मिलते हैं न रोटी।
न ही हक़ मिल रहा है
न ही इलाज।

मेरी कविता असहमति से उपजी
जिसे अस्वीकार करने की
कोई गुंजाइश नहीं।
मिनी और लघुकथा
के विवाद में न पड़
आज जब नारे बन रही है कविता चारो तरफ अभाव में
पूर्ति करती दिखती है कविता।
भूख सबको लगती है,
फिर भी किसान उपेक्षित है
आत्महत्या का सिलसिला क्यों जारी है
हताशा और अभाव में क्यों करते हैं
राजनीति में भेदभाव।
अपने पैरों तले खिसकती जमीन,
बेचैन कर देती है और सोचने पर विवश?
डंडे के जोर पर गाय नहीं देती दूध
उसे चारा और सेवा चाहिए।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे 
 

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