रविवार, 28 दिसंबर 2008

हम युद्ध न होने देंगे- शरद आलोक्

हम गांधी के वंशज हैं , हम युद्ध न होने देंगे- शरद आलोक
आज भारत की समस्या केवल भारत की नहीं रही। यह पूरे विश्व की समस्या बन गयी है। इस सम्बन्ध में हम आपको एक बात बताते हैं। यह संस्मरण ओस्लो में आयोजित ग्लोबल सम्मलेन २००८ का है, जहाँ मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। यहाँ मुझे एक चीज की बेहद खुशी हुई जब नार्वे की सुंदर युवतियां भारत में सभी को पीने के लिए पानी उपलब्ध कराने के लिए एक अभियान चला रही थीं। सुंदर युवतियों के जागरण अभियान को देखकर लगा की यदि देवियाँ इस दुनिया में हैं तो उनसे ये दूर नहीं। चाहे पाकिस्तान और बांग्लादेश में गरीबी और धर्मान्धता के कारण युवकों को अपराध के लिए भड़काया जाता हो या भारत में या फ़िर सोमालिया अथवा श्रीलंका तथा चीन में मानवाधिकार के लिए लाखों करोड़ों को बलि का बकरा बनाया जाता है तो ये सारी की सारी समस्याएं मेरी दृष्टि में जितनी भौगोलिक हैं उतनी मेरी निजी अपनी हैं क्योंकि ये मानवता और मानवाधिकार से सम्बन्ध रखती है। कुछ साल पहले नेपाल के साहसिक और लोकप्रिय नेता माधव सिंह नेपाल से बात हुई और जब एक सप्ताह पहले नेपाल के शिक्षा सचिव से मिला तो मेरे सामने काठमांडू से लेकर पोखर तक की याद आ गयी। सुंदर प्यारा सा नेपाल बेहाल क्यों है। काठमांडू के मार्ग टूटे थे। चौराहों पर प्याऊ का नामोनिशान नहीं था पर शराब हर चौराहे पर उपलब्ध था। अब भारत में भी कई बस्तियों का हाल का भी यही हाल है। बच्चों के नंगे पैर धुलने वाले, जूते पहनाने वाले तथा उन्हें भरपेट भोजन देने वाले रक्षक कहाँ चले गए।
मुस्लिम आबादी गरीब है। मुझे इस बात का बहुत दुःख है ठीक इसी तरह कि हमारा पड़ोसी, हमारे भाई -बहन गरीब है। मैं इस समस्या के लिए समाज को और सबसे ज्यादा माता-पिता को दोषी मानता हूँ। समाज को इसलिए कि उसने महिला और पुरूष में भेदभाव करके महिलाओं और युवतियों तथा बालिकाओं को क्यों नहीं पढाया ? अशिक्षा के कारण परिवार बड़े हैं और आर्थिक स्थिथि का माताएं ध्यान नहीं दे पातीं और पुरूष औरत को अपनी ज्याजाद समझते हैं। फलस्वरूप बच्चों कि परवरिश ठीक से नहीं हो पाती। स्वामी दयानंद ने कहा था कि महिलाओं को वेदों को पढ़ा दो और पढ़ने दो स्त्रियाँ अपने आप आत्मनिर्भर हो जायेंगी।
कितने मंदिरों में वेदों को पढाया जाता है और क्या सभी धर्मों के लिए सभी धार्मिक स्थानों के दरवाजे खुले हैं?
क्या धार्मिक स्थानों का प्रयोग बच्चों को बेसिक शिक्षा देने और माता पिता को साक्षर बनाने में प्रयोग नहीं किया जा सकता? राजनैतिक नेता और धार्मिक नेता बेसिक शिक्षक नहीं बन सकते? हम जिस देश में रहते हैं उस देश कि भाषा और कानून को मानते हुए मानवाधिकार की रक्षा नहीं कर सकते? आख़िर क्यों? हम सभी को स्वयं आत्मनिर्भर तो बनना ही है साथ ही पधोसी पड़ोसी को भी आत्मनिर्भर बनाना है। पड़ोसी भूखा है तो क्या आप खुश रह सकते हैं? पड़ोसी की चिंता स्वाभाविक है वह दखल नहीं है। (ओसलो , 2८.1२.०८) फ़िर मिलेंगे। अपने विचार भेजिए परन्तु दूसरे के मानवीय विचारों का आदर करें।

1 टिप्पणी:

sarita argarey ने कहा…

खोखली आदर्शवादी बातों से बदलाव की बयार चलना शुरु होती तो भारत पिछले तिरेसठ सालों में स्वर्ग से सुंदर बन जाता । म्दरसों में पढाने की हकीकत किसी से छिपी नहीं है । किताबी ज्ञान से अच्छी तकरीर दी जा सकती है हालात नहीं बदले जा सकते । कुछ और तरीका सोचिए ।