गुलजार की रचना पर सवाल उठाना नाजायज-शरद आलोक
बाएं से देवेन्द्र दीपक, गुलजार, शरद आलोक और एक शिक्षक विश्व हिंदी सम्मलेन न्यू यार्क, अमेरिका में
जो लोग किसी रचनाकार पर किसी प्रकार की अंगुली उठाते हैं पहले स्वयं अपने गिरह्बंद में झांकना चाहिए। इब्ने बबूता और जूता का प्रयोग कविता, कहानी या लेख में सर्वेश्वर से पहले कितने लोगों ने किया है? इस पर पड़ताल जरूरी है। बहुत से विद्वान इस लिए चुप हैं क्योंकि जो लोग शायद दो तीन शब्दों को सर्वेश्वर जी के बहाने प्रसिद्ध गीतकार के जरिये अपने मन की छिपी हुई बात या तो बता नहीं रहे हैं या इनके बहाने स्वयं प्रकाश में बिना कुछ योगदान दिए आना चाहते हैं।
मैं प्रश्न करता हूँ उन लोगों से जो चाहे इलाहाबाद में हों या अन्य नगरों में, चाहे देश में हों या विदेश में, और इस चर्चा में सम्मिलित हैं या हो रहे हैं 'कृपया यह बताइए जो आपकी रचना का शीर्षक है वह पहले कभी किसी की रचना का मुख्य वाक्य या शीर्षक नहीं रहा।
शोध के विद्यार्थियों को एक विषय यह मिल गया है की सर्वेश्वर की रचनाएं किनसे प्रेरित और प्रभावित हैं और उनकी रचनाओं के पहले उससे मिलते जुलते शीर्षक किन कथाकारों, कवियों, लोककथाओं और कथन पर आधारित हैं?
यह बेकार की और बेवजह बहस है। प्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने दो घटनाएं अपने गीतों की दो पंक्तियाँ दूसरे गीतकारों के नाम से लिखी देश-विदेश में हूबहू देखा और स्वयम पढ़ा था। एक बार तो उनकी कविता की दो पंक्तियाँ पाकिस्तान में एक बैनर पर दूसरे नए कवि के नाम से लिखी पायी थीं जब वह वहाँ किसी कार्यक्रम में गए थे। यह बात जब उन्होंने बताई थी तब मैनचेस्टर, यू के के कवि सम्मलेन में मेरे अतिरिक्त हजरत जयपुरी और गोपाल दस नीरज जी भी सम्मिलित हुए थे।
आप कितनी पंक्तियाँ रोज दोहराते हैं ? शब्दकोश के निर्माता भी सभी शब्दों का हिसाब एक समय में नहीं रख पते। जो रचनाकार अंगुली उठा रहे हैं दोबारा दोनों अपनी रचनाओं की परख करने के लिए अपने पूर्वर्ती की रचनाएं पढ़े तो उनको आसानी होगी की शब्द किसी की बपौती नहीं है। हाँ यह संभव है कि कोई भी छोटा या बड़ा या मामूली आदमी भी नए शब्द बना सकता है।
मुहावरे, लोकोक्ति, बयान आदि का साहित्यकार बराबर इस्तेमाल करता रहा है और करता रहेगा। वह नक़ल नहीं वरन उसका प्रयोग है.
जो हिंदुस्तान और जागरण में छापा है उसे देखते हुए मझे कतई नहीं दिखाई देता कि सर्वेश्वर अखबार में दी हुई पंक्तियाँ गुलजार की पंक्तियों की न तो छाया लगती हैं न ही प्रेरित लगती हैं। चाहे कोई या रचनाकार स्वयं भी कहे।
अच्छी रचनाएं लिखिए और आगे आइये मैदान में। या शोध करके एक अच्छा वक्तव्य लाइए न कि कीचड़ उछलने या बातों में समय ख़राब कीजिये। मेरी कविता कि पंक्तियाँ हैं। इस तरह कि बात करने वाले जनवादी या प्रगतिवादी हो ही नहीं सकते क्यों कि प्रगतिवादी विचारधारा वचारशील, नए विचारों और प्रयोगों को पचाने कि शक्त और बुद्धि देती है। मैं अपनी दो अति साधारण कविताओं कि कुछ पंक्तियाँ यहाँ नीचे दे रहा हूँ।
' हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं,
काटना क्यों चाहते हो नयी फसल जब तुम्हें बोना नहीं।'
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'आधुनिक व्यक्ति अपने घर में
कम से कम करता है कूड़ा -कचरा।
अपने मस्तिष्क को खुला रखता है
नए विचारों के लिए!
एक बात अच्छी है कि हम अब चर्चा करने लगे हैं हिंदी में जो एक शुभ संकेत है। चाहे जो विषय चुनें। जो विषय उठाया गया है वह भी बुरा नहीं है।
एक बात और मेरे पास एक रचना स्वीडेन के एक प्रवासी लेखक जिनकी आयु ८० से अधिक है द्वारा आयी और उन्होंने बताया की उन्होंने वह रचना पुरानी एक कथा से ली है। जबकि उससे करीब-करीब मिलती रचना दिल्ली के एक बहुत मशहूर हास्यकवि अपनी मशहूर रचना बताते हैं। ऐसा दिल्ली के एक दूसरे कवि ने मुझे बताया था, एक सम्पादक के नाते शोधार्थी बनने की जरूरत नहीं यह कार्य शिक्षकों का और शोधकर्ताओं का है सत्य को उजागर करना।
-शरद आलोक , 03.02.10
4 टिप्पणियां:
बिलकुल दुरुस्त फ़रमाया sir लेकिन सवाल सिर्फ इतना है कि
इन मठाधीशों को समझाए कौन...
बौराई सारी बस्ती है अब आग बुझाये कौन...
जय हिंद...
आदरणीय शरद आलोक जी,
आपने सही कहा है कि यह बहस बेवजह है. कोई साम्यता नहीं है.
कहाँ गुलजार कहाँ सर्वेश्वर.
दोनों कि सोच अलग.
गुलजार रचना यात्रा में बड़े हैं. यदि सर्वेश्वर जिन्दा होते तो दुखी होते और बताते कि
उन्होंने स्वयं कैसे और किसकी प्रेरणा से लिखा है. माफ़ कीजियेगा इस रचना में कोई दम भी नहीं है.
कोई अच्छा उदहारण दिया गया होता तो अच्छा होता. एक कमजोर रचना और कोई समानता नहीं.
- माया भारती
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और गुलजार की पंक्तियों में आपको फर्क नहीं लगता, यह बहुत ही ताज्जुब की बात है। दोनों के चिंतन में बहुत एक अंतर सा है।
www.chaumasa.blogspot.com
ye sab befijool ki baate hai logo ko to bolne ka mauka milna chahiye
kisi ko koi haq nahi hai kisi ko bura bolne ka...
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