दस फरवरी को मेरा जन्मदिन था जिसे मैंने अपने परिवार, नार्वेजीय और भारतीय मित्रों के साथ मनाया।
अपनी माँ का सोने के पहले स्मरण किया। सपने में माँ दिखीं। जो हम सोचते हैं वह अक्सर हम सपने में भी पाते हैं। पर क्या सारे सपने सच हो सकते हैं? मैं मानता हूँ कि लेखक को राजनीति क मर्मग्य होना चाहिए और एक्टिविस्ट भी। मैंने अपनी मात्रभूमि और दुनिया के दलित बंधुओं को जिन्हें मैं अपना हिस्सा मानता हूँ। कभी -कभी सोचता हूँ कि उन्हें अपना क्यों ना कहूं। किसी भी चीज को समझने के लिए शब्द देना होता है।
जब मैं अपने बचपन के नगर लखनऊ में, भोपाल में, मुंबई में या अमृतसर और दिल्ली में होता हूँ। तो अपने इन मित्रों से मिलता हूँ। इस बात कि परवाह नहीं करता कि दिन है या रात है। स्त्री है कि पुरुष है। स्त्री -पुरुष के बीच भी भेदभाव करना हमारे समाज में ज्यादातर घुट्टी कि तरह पिलाया जाता है। मेरे लखनऊ में एक मित्र हैं वीरेंद्र मिश्र और साथ ही वकील इलाहाबादी ये समाज के ऐसे पात्र हैं जिन्होंने समाज की विषमताओं को नजदीक से देखा है। एक शायरा मित्र बहन थीं जिनका नाम था मुन्नव्वर हसन। उन्होंने मेरे सम्मान में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में हुए समारोह में अपने सपनों को उजागर किया था। इस समारोह के मुख्य अतिथि थे तत्कालीन दूरदर्शन लखनऊ के निदेशक और प्रसिद्ध रंगमंच कर्मी विलायत जाफरी, संस्थान के निदेशक और प्रसिद्ध कवि विनोदचंद पाण्डेय भी मौजूद थे। उस समय मैंने सोचा था कि मुन्नव्वर हसन की पुस्तक छपने में मुझे मदद करनी चाहिए।
जब पिछले वर्ष अनेक वर्षों के बाद मैंने उनके बारे में पता लगाया तो देर हो चुकी थी। लखनऊ विश्व विद्यालय में प्रो योगेन्द्र प्रताप सिंह के साथ था तब डॉ अमरनाथ ने बताया कि उनके विभाग में कार्यरत कवियित्री मुनाव्वर हसन हम सभी को छोड़कर दुनिया से जा चुकी हैं। कितना अच्छा होता कि कुछ पहले उनके जीवित रहते ही उनकी पुस्तक छपने में मैं सहायता कर पाता। कई बार आप किसी बात पर विचार करते हैं। पर आपके वे विचार बहुत समय बाद पुनर्जीवित होते हैं। कितनी देर हो चुकी होती है। दिल्ली में जामिया मीलिया में भी जब अपने विद्वान मित्र और प्रोफ़ेसर काजी उबैदुर रहमान हाशमी जी ने मेरे सम्मान में मेरा वक्तव्य मेरी कहानियों को लेकर रखाया था। उस समय एक युवा शायरा जिसके पिता भी शायर थे नाम शबनम था उस बैठक में मौजूद थी जिन्होंने कहानियों पर मेरा वक्तव्य पसंद किया था उनके बारे में बार बाद में पता चला कि वह अस्पताल में दाखिल थी और उसके पिता का देहांत हो चुका था। आशा है कि वह कवियित्री भी कुशल और मंगल होगी। हमारे समाज में बहुत कुछ अभी बहुत पुराने ख्यालों का बोलबाला है। इसी कारण और संकोच और लोक-लाज में बहुत से लोगों की मदद नहीं हो पाती ।
वापस मैं अपने दलित विचार-विमर्श पर आ रहा हूँ ।
मैंने एक कविता लिखी जिसे आपके साथ बांटना चाहता हूँ।
'भूखे -नंगो को तुम भोजन घर देना,
जो अमीर हो ज्यादा उससे कर लेना।
अब दलित और ना कुचले जायेंगे
मानवता का पाठ मनों में भर लेना॥
जो चौका-बर्तन करते समाज रतन,
कपड़ा धोने आये उनके मन धोना।
सबके अंदर सपने और इच्छाएं हैं,
सब बच्चे सुन्दर उनको बचपन देना॥
स्वच्छकार हम अपने मन साफ़ करें,
समाजवाद की तब उनसे बात करें।
साफ़-वस्त्र, घर आँगन जिनके खातिर
उनके उधार चुकता कर अपनी बात करें।।'
आज ओस्लो नगर में तापमान - १२ है। आसमान साफ़ है। मौसम बहुत अच्छा है। सूरज चमक रहा है। पढ़ पौधों पर बरफ कि परत चढी हुई है। लगता है कि सभी पेड़ -पौधों को रुई के फाहों से सजाया गया है। कल जम शाम को मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा था बाहर तापमान -१५ था। घर के अन्दर २० था गरम और सुहावना।
मित्रों और परिवारजनों की उपस्थिति में और भी सुखमय वातावरण बन पड़ा था।
कल शुक्रवार प्रातःकाल जब मैं मैट्रो स्टेशन पर खड़ा था। तेज बर्फीली हवा चल रही थी। सरसराती हुई बहुत ठंडी हवा सारे बदन को स्पर्श कर रही थी। बेशक ठंडक थी पर मुझे सुखद लगा था। लग रहा था की पर्वत पर हूँ और बर्फीली ठंडी हवा आनन्द दे रही है। महादेवी वर्मा जी की तरह मुझे भी पीड़ा और कठिन समय सुख देता है क्योंकि वह प्रेरणा बनकर सुख और दुःख के बीच सेतु का कार्य करता है। अधिक ठण्ड और अधिक गर्मी और अधिक बरसात भी सुख देती है। प्रो योगेन्द्र प्रताप सिंह जी इसे भली भांति जानते हैं। पिछले वर्ष मैं घनघोर बरसात में रात साढ़े ग्यारह बजे भीगता हुआ लखनऊ विश्वविद्यालय के पीछे उनके बंगले पर मिलने गया था। उनके आवेदन पर भी मैंने उनके साथ छाया में रहना उचित नहीं समझा था। इसी बहाने लखनऊ की भीगते हुए लगभग अनेकों घंटे की सैर की थी जिसमें मेरे चचेरे भाई प्रशांत भी साथ थे।
ओस्लो, 12 फरवरी 2011
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