रविवार, 25 सितंबर 2011

लखनऊ की खुशबू और लैटिन अमरीकी नृत्य का आकर्षण -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

लखनऊ की खुशबू और लैटिन अमरीकी नृत्य का आकर्षण -शरद  आलोक  
नीचे चित्र में जगदीश गांधी जी अपने सम्मान में यूनेस्को द्वारा दिए लंच में वक्तव्य देते हुए (२३.०९.११, ओस्लो)






ओस्लो में लखनऊ की खुशबू



मेरी अनेक रचनाओं में लखनऊ की सरगर्मी, मौसम की  रवानी, ममता में जवानी और पहले आप, पहले आप कहकर कितनी ही रेलें जाने दी होंगी, यह याद नहीं.

जगदीश गांधी जी  से  नार्वे में 36-37  वर्षों मिलने के बाद न जाने क्यों लगा की ओस्लो की धरती वाइतवेत, ओस्लो में लखनऊ की भीनी-भीनी खुशबू आने लगी है. 

नीचे लेटिन अमरीकी नृत्य प्रस्तुत करते हुए चिली देश के कलाकार
चौक, चारबाग,ऐशबाग, यहियागंज, महानगर, मोहनलालगंज आदि के रहने वाले लखनऊ वासियों के साथ साथ पांच धर्मों और सात देशवासियों ने मिलकर 'भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम  की ओर  से आयोजित कार्यक्रम में  जगदीश गांधी जी को अपनी श्रद्धा अर्पित करके हम सभी का गौरव बढाया.  
परसों जगदीश गांधी जी को भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम द्वारा दो महान नोबेल पुरस्कार विजेताओं: साहित्य में रबीन्द्र नाथ टैगोर और शांति में नार्वे के फ्रित्योफ़ नानसेन  विद्वानों
की १५० वें  जन्म वर्ष (डेढ़ शती) के अवसर पर नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम द्वारा
संस्कृति पुरस्कार से पुरस्कृत किया  गया.
मेरे मन में उदगार उठने लगे. आज एक बड़े कार्यक्रम की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है. Poetry evning काव्य संध्या इसमें अनेक भाषाओँ में कविताएँ पढी जायेंगी. पर कवी हूँ अपनी भावनाओं को नहीं रोक पा रहा हूँ. और एक कविता मेरे अंतर से जन्म लेती दिखाई दे रही है. बहुत सी बातें एक साथ खलबली मचाकर कलम द्वारा कागज़ पर उतरना चाहती है, हाल ही में लखनऊ से बहन डॉ. विद्याविन्दु सिंह, डॉ. कैलाश देवी सिंह, गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के विस्वविद्यालय शान्तिनिकेतन से प्रो. रामेश्वर और डॉ शकुन्तला मिश्र उर माया भारती के साथ पानी के जहाज से चौबीस घंटे की यात्रा पर गए थे. ओस्लो से फ्रेडरिक्सहाव्न (डेनमार्क) गए थे.  लेटिन अमरीकी गीत नृत्य उत्सव में ओस्लो में भी रातभर रहे और आनंद लिया तथा  पत्रकार धर्म निभाया.  ओस्लो को मैं उत्सव का नगर मानता हूँ और लखनऊ को तहजीब और कलानगर. कविता की बहती पंक्तियों का आप भी आनंद उठाइए: 

'जिन्दगी खूबसूरत नहीं तो क्या कहूं,  
फूल की खुशबू का वह दीदार हूँ .
अंतर ह्रदय से प्रेम कर देखो सही, 
सांस में हवा का एहसास हूँ. 

चारदीवारी बनाकर क्या रोक सके, 
सपनों में बेखटक आते-जाते रहे..
कितने ही अनजान, अनजाने न रहे.
नदी में खींच कर लकीर -फकीर हो गए.

अब दीवार और परदे  से क्या छिपता हुस्न है
सामाजिक मीडिया से घर में, 
मस्तिष्क का पहरा  छोड़कर
कितने ही परम्परा के फाटक तोड़कर.

कितने ही अद्भुत रिश्ते जोड़कर
प्रेम की वह नूर की परी लगती रही
बे चित्र, सिनेमा के दृश्यों सा झकझोर कर 
दिन-रात, रसोंई से लेकर शयनकक्ष तक,

बस, रेल और जहाज पर बैठे हुए
कम्प्युटर पर सैर करते हुए,नाम बदले पतों को ढूंढते
फेसबुक, आर्कुट न जाने कितने पते 
ख़त लिखने का चल अब लौट कर.

बिछड़ों को ढूढ़ते- ढूढ़ते, दूसरों का घर बसाने
आये थे खुद बसेरा बना बैठे नगर में,
लखनऊ आये हो, आया करो
कुछ प्रेम भी देकर मुझे जाया करो!

सड़क पर बैठे हुए, पार्क पर आसमान तकते,
मस्जिदों में सर झुकाते, गुरुद्वारों में लंगर खाते 
और न जाने कितने उत्सव-पर्वों के बाद 
घूमते -हम तुमको मिल जायेंगे 
पर मुझे पहचान पाओगे की नहीं? (लखनऊ में)

दो सप्ताह पहले हम भी बहुत नांचे थे
लेटिन अमरीकी उत्सव में
बहुत नांचे, बहुत झूमे रात भर,
उर्गुआई, चिली, पेरू, ब्रासील 
न जाने कितने देशों  के सुन्दर बदन
नांच-नांच कर बेहोश करदें आपके क्षण. (ओस्लो में)

कवियों को गीत गाता देखकर,
उनकी भाषा के तेवर देखकर
उनके पांवों की थिरकन देखकर
कत्थक- भारत नाट्यम भूलकर
खो गए ऐसे समूचे कुछ समय.
  
सारे देशों की सीमा तोड़कर
सिमट जाती एक बिंदु पर कभी
न जहाँ  आरम्भ अथवा अंत है 
संस्कृति आजादी का ही मन्त्र है

पानी के जहाज पर देखो कभी,
रात-भर  पक्षी  साथ-साथ उड़ते रहे 
नांचकर  थककर छत पर बैठकर
बिछड़े हुए साथी तकते रहे..  (ओस्लो से डेनमार्क यात्रा करते समय)

परसों २३ सितम्बर की बात   है.  जगदीश गांधी जी को संस्कृति पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाना था. मुझे पुँरानी बातें याद आ गयीं.  
सन १९७१ का लखनऊ उतना ही  खूबसूरत  लगता था जितना की आज. 
तब आर्थिक संसाधन नहीं थे, पर लोगों में आज की तरह ही मेलजोल था, भाईचारा था और लखनऊ की अपनी तहजीब है कि घर में चाहे खाने के लिए न भी हो पड़ोस से उधर लेकर पान खिलाने और चाय पिलाने का रिवाज था.  मेहमान-नेवाजी ऐसी कि अपने मेहमान को प्राथमिकता देते हैं जैसे पश्चिम देशों में बच्चों और महिलाओं को प्राथमिकता देते हैं और भारत (पूरे भारत) में बुजुर्गों और महिलाओं को पहला स्थान देते हैं. पर लखनऊ कि बात ही कुछ और है. चाहे बच्चा हो या बुजुर्ग, आदमी हो या औरत, गरीब हो या अमीर पर 'पहले  आप' वाली संस्कृति आज भी लखनऊवासियों  के खून में रची बसी है. हमारे शरीर को भौगोलिक बदलाव को सहन करने में पीढियां लग जाती हैं, परन्तु लखनऊ में लखनऊ-वासी बनकर देखिये आप दस साल में ही लखनऊ की संस्कृति आपके नस-नस में हवा सी बहने लगेगी. 
लखनऊ की प्रतिष्ठा और संस्कृति को दूसरे प्रदेश और देश से आये लोगों ने इसे और रंगबिरंगा कर दिया है.
हाँ लखनऊ-वासी परदेशियों और अनजान लोगों को भी गले लगते हैं, और वह जानते हैं कि एक दिन वह भी लखनऊ का होकर रह जाएगा. पर मल्टीनेशनल कंपनियों ने अब लखनऊ वासियों की जेब को स्वास्थ और पानी जैसी  बुनियादी चीजों से महरूम कर दिया है और लखनऊ  का पैसा बहुत गलत हाथों में आ रहा है. लखनऊ ने कभी परवाह नहीं की की उसकी धरती में कौन रोजी-रोटी कमाता है, पर अब अब लखनऊ-वाइयों से सेवा मुफ्त में लेकर अमीर- बेदर्दों ने बुखार ठीक करने के बदले गरीग का पूरा घर गिरवी रखने लगे हैं. भले ही अभी यह कहावत है, पर आने वाले दिनों में यदि लखनऊ में बहुत से दरियादिलों ने ध्यान नहीं दिया तो बहुत से इंसान अपनी जवानी में ही बुढ़ापा देखने को मजबूर हो जायेंगे अभी दिल देकर काम चल जाता है पर बाद में खून देकर या बेचकर ही गुजारा चलेगा जिसकी एक सीमा होती है. 
मैंने देश में भी विदेश में भी देखा है, किसी भी विदेशी संस्थान में लखनऊ के लोग मिले तो देखते ही महसूस हुआ कि बिछड़े हुए भाई-बहन, पडोसी और दूकानदार मिल गए हैं.  विदेशों में तो मुझे पंजाबियों यानी पंजाब प्रांत  से आये लोगों का भी इतना प्यार मिला कि मुझे ओस्लो नार्वे में चुनाव जिताने में उन्होंने मुझे बहुत वोट देकर जिताया था. 
पहले शिक्षा के संस्थानों का अभाव था.  आज शिक्षा पहले से बेहतर हैं पर प्रयाप्त नहीं हैं.
पहले से बेहतर है. लखनऊ में इस बेहतरी में योगदान देले वालों में जगदीश गांधी  और भारती गांधी हैं.   

२३ सितम्बर को दोपहर 'आकरहूस फेस्तनिंग' (भारत के लाल किले जैसा महत्त्व)  के पास बैंक प्लेस,  ओस्लो  में यूनेस्को ने जगदीश गांधी जी को लंच के लिए आमंत्रित किया था. मुझे गांधी जी ने आमंत्रित किया था. वहां अनेक चिरपरिचित नार्वे के महत्वपूर्ण लोग सम्मिलित हुए थे. वहां भी गांधी जी का शिक्षा के जरिये शांति पर वक्तव्य अच्छा लगा.
जगदीश गांधी जी को ओस्लो में कुछ दूरी पैदल चलाया ताकि जगदीश गांधी जी के साथ पैदल ओस्लो में चलकर लखनऊ की यादें तजा कर सकूं और उन्हें ओस्लो का कुछ पलों का पैदल चलने का क्षण याद रहे.  नार्वे के स्तूरटिंग (पार्लियामेंट), नेशनल थिएटर, फिर उनके होटल रीका से पैदल वापस 
नेशनल थिएटर तक वहां से मित्रो द्वारा वाइतवेत, ओस्लो तक जहाँ कार्यक्रम होना था, साथ-साथ आये. 
एक हमेशा याद रखने वाला दिन था मेरे लिए वह भी आदरणीय जगदीश गांधी जैसे महँ व्यक्ति के साथ. उनके साथ शिशिर श्रीवास्तव जी बी थे जो उनकी यात्रा को सुखमय बना रहे थे. 
फिर कभी लिखूंगा. आज २५ सितम्बर को काव्यसंध्या एवं सांस्कृतिक महोत्सव  Poesikveld og Kulturfest कार्यक्रम की जिम्मेदारी है जो गांधी जी अपने नगर में वैश्विक स्तर का करते रहे हैं. अब विदा दें, फिर मिलेंगे. अपने विचार लिखिए इस बलाग पर. आभार सहित.
                                                                                 - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Oslo, 25.09.11
                                                                                                                                                    speil.nett@gmail.com
माया भारती को घड़ी पर गणेश जी भेंट कटे हुए उनके घर में  

बाएं से लेटिन अमरीकी कवि उर्गुआइ की गायिका बेनदिक्ते, शरद अलोक, कलाकार और लेटिन अमरीकी उत्सव की आयोजक सदस्य वेरोनिका और नार्वे में चिली देश  के महामहिम राजदूत  

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