रविवार, 9 नवंबर 2014

कितना अच्छा लगता है बिछड़े मित्रों से मिलकर -Suresh Chandra Shukla


Hei, jeg har møtt mine venner etter 19 år. Det er veldig gledelig å treffe dem igjen.
 कितना अच्छा लगता है बिछड़े मित्रों से मिलकर और नये प्यारे मित्रों से मिलकर। आइये अपने उन मित्र की बात करते हैं जो 19 साल पहले नार्वे से गए थे और हम लोगों से मिलने आये.
आज से तीस पहले मैं साग्न स्टूडेंट टाउन ओस्लो में रहता था कमरा नंबर 205 एडमिनिस्ट्रेशन बिल्डिंग में. जो एक साहित्यिक और भारतीय छात्रमित्रों का अनौपचारिक केंद्र था. 19 साल बाद पुराने मित्र परमजीत कुमार चंडीगढ़ से आये और ब्रिटेन से आकर ओस्लो में बसे इंजीनियर मित्र बशीर हाकिम। हम सभी पहले बहुत मिलते हैं. पुरानी और नयी बातों को तह लगाकर रखा गया और नए विचारों से उसे सवांरा गया.
अब तो वैचारिक मित्र पुराने मित्रों की जगह लेते जा रहे हैं, परन्तु पुराने मित्रों को भुलाना संभव नहीं।



मेरे  कमरे में बहुत से नार्वे के व अन्य देश विदेश के साहित्यकार, शिक्षाविद और छात्रमित्र शनिवार को एकत्र होते थे. इन लोगों के नामों में एक बहुत बड़ा काफिला है. जाने-पहचाने और अपरिचित सभी शामिल हैं. सभी धर्मों के लोग पर कभी धर्म और वैचारिक भिन्नता आड़े हाथ नहीं आयी. 
उर्दू के लेखक रामलाल, गोपीचंद नारंग, सत्यभूषण वर्मा, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, महेश दिवाकर, विनोद बब्बर,  रामेश्वर और शकुंतला  मिश्र,  रमणिका गुप्ता, सरोजनी प्रीतम, वासंती, मनोरमा  जफ़ा और अनगिनत नार्वेजीय लेखक, शिक्षाविद और कलाकारों की लम्बी लिस्ट है.      

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