सोमवार, 5 मई 2008

नार्वे में प्रकाशित हिन्दी पत्रिकाएं - शरद आलोक

सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन ने एक आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक पुस्तक लिखी थी "क्या भूलूं क्या याद करूँ"। पुस्तक बहुत चर्चित हुई थी। कुछ लेखकों ने कुछ प्रसंगों के सम्बन्ध में लिखा था कि अमुख़ बात सच नहीं । यदि सच थी तो पहले क्यों नहीं लिखा जब घटित हुई थी। फलस्वरूप मेरे मन में विचार जगा क्यों न मैं वह लिखना शुरू करूँ जो मैंने देखा और पाया ताकि भविष्य में मुझे भी लोग यह कह कर नकार न सकें कि मैंने पहले या अभी क्यों नहीं कहा या लिखा।
नार्वे में हिन्दी पत्रिका का शुभारम्भ "परिचय" से हुआ था जिसका प्रकाशन १९७८ में शुरू हुआ था।
पिछले वर्ष २००७ और २००८ में केवल दो पत्रिकाएं ही छाप रही हैं। ये हैं सपाइल -दर्पण जो २० साल पहले १९८८ में शुरू हुई थी। और दूसरी नयी पत्रिका "वैश्विका " जिसका प्रकाशन २००७ में आरंभ हुआ जिसका लोकार्पण २००७ में न्यूजर्सी, अमरीका में योगऋषि बाबा रामदेव जी के करकमलों द्वारा छठे हिन्दी महोत्सव में सम्पन्न हुआ था जिसकी प्रतियाँ विश्वहिंदी सम्मेलन में विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा, राजदूत रोनेन सेन, संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे राजदूत निरुपम सेन, निदेशक इन्द्र नाथ चौधरी, पूर्व राजदूत और सांसद लक्ष्मी शंकर सिंघवी और सभी प्रतिनिधियों को भेंट की गयी और सराही गयी थी।

हम देश की सेवा, साहित्य की सेवा , अपने और उस समाज की सेवा करते हैं जिसमें हम रहते हैं तो उसे प्रोत्साहित करना चाहिए ?
आपके साथ कुछ बातें बाँट रहे हैं। नार्वे में २८ वर्षों में से २५ वर्षों तक हिन्दी पत्रिकाओं "परिचय" और "स्पाइल-दर्पण के माध्यम से निस्वार्थ सेवा करके जो संतोष और जो सुख मिला उसका वर्णन करना मुश्किल है। विदेशों में हमारे भारतीय और अन्य विद्वतजन हिन्दी की सेवा कर रहे हैं ये सुख वही जान सकते हैं।
मैं उन सभी लोगों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जो देश विदेश में हिन्दी, भारत और अपनी संस्कृति का गौरव बढ़ा रहे हैं। मैंने वही किया जो कोई एक संपादक और भारतीय होकर किया जा सकता है।
१९८० से १९९० तक का समय विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता की स्थापना का समय था। इस समय जब भारत के प्रवासी बाहर परदेश में अपनी जगह बना रहे थे, हिन्दी की पत्रिका शुरू करना कठिन था। मेरे पास का typewriter नही था। फ़िर भी पत्रिका शुरू की और उसे निरंतर जारी रखा। श्री चंद्रमोहन भंडारी जी ने भी "परिचय " में अपने अच्छे विचार व्यक्त किए थे जो एक अच्छे लेखक और नार्वे के भारतीय दूतावास में प्रथम सचिव थे जो आजकल संयुक्त अरब अमीरात में राजदूत हैं।

श्री कमल नयन बक्शी जी को कौन नहीं जानता वह स्वीडैन और नार्वे में भारतीय राजदूतावास में लगभग दस वर्ष रहे होंगे। अनेक यादें अभी भी ताजा हैं। सचिव अशोक तोमर जी ने दूतावास से "भारत समाचार " शुरू किया था जिसमें मैं हिन्दी में अनुवाद करके समाचार दिया करता था।
राजदूत कृष्ण मोहन आनंद जी ने " सपाइल -दर्पण " पत्रिका और "भारतीय -नार्वेजीय सूचना और सांस्कृतिक फोरम " संस्था का आरंभ कराया था। श्री निरुपम सेन और श्री गोपाल कृष्ण गाँधी जी ने इन पत्रिकाओं और भारतीय संस्थाओं को फलने फूलने का अवसर दिया। सचिव पन्त जी ने भी भरपूर सहयोग दिया है। अभी भी नार्वे में हमारा दूतावास बहुत सहयोग करता है जिसकी प्रशंसा मैंने "सरिता" में की है।

"परिचय" में मेरे लेखों और संपादकीय लेखों की भारत के कई प्रतिष्ठित पत्रों ने प्रशंसा और चर्चा की थी। १९८३ -८४ पंजाब समस्या के समय हमारी भूमिका स्वागत योग्य थी। धर्मयुग, कादम्बिनी ओर स्वतंत्र भारत ने इस सम्बन्ध में बहुत प्रशंसा की थी।
२००७- २००८ में नार्वे से केवल दो साहित्यिक पत्रिकाएं छप रही हैं।
"स्पाईल -दर्पण" और "वैश्विका", जैसा ऊपर लिख चुका हूँ ।
आज इंटरनेट और वेब का जमाना है। सच्चाई अब हम नहीं छिपा पायेंगे। जब केंद्रीय सरकार इंटरनेट से भारतवासियों की सहायता लेगी और विदेशों में भारतीयों को दिए जाने वाले पुरस्कार और सम्मान का पता चलेगा तब- तब सही कदम उठाने में सहायता मिलेगी। जैसे आजतक TV chainal ने असत्य से परदा हटाया है । आप अपने विचार लिखकर सहयोग करें तथा विदेशों में अपने देश का नाम करें। बहुत से लेखकों ने तो यात्रा वृत्तांत और प्रवासी साहित्य पर पुस्तकें भी लिखी।
विदेशों में लिखे साहित्य और क्रियाकलापों का सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए। विशेषकर जो भारत की प्रतिष्टा को उजागर करने वाले और सृजनात्मक सत्य को प्रगट करने वाले हों।
सही समाचार की कमी
विदेश में समाचार पत्र भी हमारे देश भारत की अनेक अवसर पर सही तस्वीर नहीं दिखाते। हम लोगों को चाहिए की हम संपादक के नाम पत्र लिखकर भेजें उसमें अपने देश भारत की तरक्की, उसके गौरवमयी कार्यों और उपलब्धियों को लिखकर बताएं और उसे छपाये ।
आप मेरे बारे में जानना चाहते हैं, दिल्ली से प्रकाशित "सरिता" मार्च द्वितीय में मेरे बारें में आपको कुछ सूचना मिल जायेगी। मुझे अनेक पत्र मिले। आपका पत्र के लिए बहुत आभारी हूँ ।
यह जरूर सोचिये की आपने हिन्दी के लिए क्या किया है और हिन्दी का अधिक से अधिक प्रयोग करके और पुस्तकें खरीद कर उसे उपहार में दीजिये ताकि हम अपनी भाषा हिन्दी का प्रसार और विस्तार में सहयोग दें। धन्यवाद।
-शरद आलोक

1 टिप्पणी:

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

बिल्कुल ठीक सुरेश जी, कम्बख्त हिन्दी वालों की तिकड़मबाजी वैश्विक हो गयी... बात शर्म की है .