शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

मैं बॉलीवुड की रानी अभिनेत्री कंगना Kangna Ranaut को लेकर फिल्म बनाना चाहता हूँ - शरद आलोक Kangna Ranaut -Suresh Chandra Shukla, Oslo

यदि मैं बॉलीवुड का फिल्म निर्माता होता  कंगना को लेकर फिल्म बनाता- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


 मैंने बहुचर्चित और तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेत्री  कंगना रनौत द्वारा अभिनीत और हर्षद मेहता द्वारा निर्देशित फिल्म प्रोफ़ेसर निर्मला मौर्या जी के साथ चेन्नई में और प्रोफ़ेसर राजेश श्रीवास्तव जी के साथ मुंबई में देखी थी और मेरे मन में बात आयी कि कंगना में वह सब मौजूद है जो पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना में है. 
यदि मैं फिल्म बनाउँगा तो कंगना रनौत मेरी पहली पसंद होंगी। 


  


मैं फिल्मों से कब और कैसे जुड़ा - 'शरद आलोक'

पैसे के अभाव में अपने नगर में फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला नहीं ले सका
जब मैं लखनऊ में रहकर अध्ययन कर रहा था तब वहां कुछ वर्षों के लिए फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई थी शिवाजी गणेशन के नेतृत्व में. मैंने कार्यालय के इतने चक्कर लगाये कि वहां के लोग मेरी लगन को देखकर प्रभावित हुए और अनेक पोस्टकार्ड के आकर के चित्र बनवाकर आवेदन आदि जमा कर लिया और मुझसे लगभग दो हजार रूपये जमा कराने के लिए कहा.
फैशन के कपड़े (सड़ी सफ़ेद कपडे की सदरी-राजेश खन्ना की स्टाइल की और पुराने पैंट  को नए फैशन रूप में बदलने और सिलने का कार्य किया था फिरोज टेलर, जो डी ए वी कालेज, लखनऊ के पास स्थित था. यह सिलाई बहुत कम पैसे में. पोस्टकार्ड आकार के चित्र खींचने और बनाने में मेरी उधार मदद की थी कैसरबाग में ग्लेमर स्टूडियो, लखनऊ ने. 
 पैसे के अभाव में और रेलवे की नौकरी करते हुए अध्ययन की जिमेदारी ने मुझे ऐक्टिंग या निर्देशन न सीखने दिया।
यह वह दौर था जब मैं गरीबी को दांव देकर काम करता हुआ अध्ययन कर रहा था और साथ ही कभी-कभी लेखन करता था, कवितायें लिखता था.  उसी समय मेरे मोहल्ले में अक्सर होली पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे जिसमें एक बार श्री विजय भल्ला, हरीश सूरी,  ओम प्रकाश आदि ने कार्यक्रम कराया था और मंत्री राजेंद्र कुमारी बाजपेयी आयी थीं तब मैंने कैरीकेचर 'हास्य-व्यंय' प्रस्तुत किया था. मेरे पिताजी ने मेरी माताजी से मेरी प्रशंसा  की थी.
पढ़ाई में औसत, और लड़ाई और घुमाई में सदा आगे रहता।  मुझे लगता फिल्म आवारा बेशक राज कपूर ने बनाई थी पर तीन चार साल तक मैंने जमकर दोस्तों के साथ घुमाई और आवारागर्दी की थी. ये सन 1968 से लेकर 1972 के दिन थे.
सेंटर वाली पार्क, पुरानी लेबर कालोनी ऐशबाग, लखनऊ के पार्क में सूचना केंद्र द्वारा श्रमहितकारी केंद्र में दिखाई गयी 'एक के बाद एक' देवानंद द्वारा अभिनीत फिल्म मेरी देखी पहली फिल्म थी.
पहले बॉलीवुड के गीतकार से भेंट
मजे की बात देखिये कि जिस गीतकार कैफ़ी आजमी ने 'एक के बाद एक' फिल्म के गीत लिखे उनके दर्शन हुए एवररेडी फैक्टरी तालकटोरा, लखनऊ के बड़े मैदान में एक बड़े मुशायरे और कविसम्मलेन में हुआ कविसम्मेलन विधिवत शुरू होने के पहले शुरुआत में स्थानीय कवि कृष्ण कुमार चंचल और मैंने अपनी कविता गांधी जी पर पढ़ी. यह कवि सम्मलेन भी शायद दो अक्टूबर 1972 को था (तारीख ठीक से याद नहीं है). कैफ़ी आजमी जी से मेरी दूसरी मुलाक़ात ओस्लो नार्वे में बड़े दायकमान्स्के पुस्तकालय के बाहर हुई थी. वह ओस्लो में मुशायरा और कवि सम्मेलन में भाग लेने आये थे.
 चुम्बन के लिए माँ से बहुत पिटा 
जिस एक लड़की का दोस्तों के बहकावे में आकर खुलेआम चुम्बन लिया और अपनी माँ से बहुत पिटा था. उसके भाई से पता चला कि उसकी कुछ वर्ष पहले उसकी मृत्यु हो गयी है. मुझे बहुत दुःख हुआ. यह खबर सुनकर मेरे पुराने दोस्तों को भी दुःख हुआ.
जो लोग आज भी लखनऊ में रहते हैं और जिन्होंने मेरा वह समय देखा है उन्होंने जरूर मेरे जीवन का जीता जागता चलचित्र देखा होगा।
समय से संघर्ष द्वारा जीता जा सकता है.
एक बार जब मैं सात महीने के लिए सन 1971 में रेलवे अस्पताल, लखनऊ में भर्ती रहा था तब मोहल्ले में अनेक मातायें खुश थीं कि अच्छा है कि मैं मोहल्ले से दूर हुआ. क्योंकि रोज-रोज उनके बच्चों को परेशान करना और उनके साथ घूमना बंद हो गया था. उन माओं के सारे बच्चे मेरे साथ ही हाई स्कूल में फेल हो गये थे.
मैंने प्रसिद्द पत्रकार शेषनारायण सिंह को साक्षात्कार में बहुत कुछ बताया था.
बाद में जब मैं रेलवे में आठ घंटे की नौकरी करते हुए अध्ययन में भी अच्छे नंबरों से पास होने लगा और अखबार में कवितायें भी छपने लगी तो इन्हीं माताओं ने कहना शुरू कर दिया कि लड़का हो तो ऐसा. जीवन में बदलाव होते देर नहीं लगती।  समय से संघर्ष द्वारा जीता जा सकता है. आगे चलकर कादम्बिनी के सम्पादक और जाने माने कथाकार राजेंद्र अवस्थी जी ने मेरे बारे में लिखा था कि समय मेरी मुट्ठी से निकलकर नहीं जा सकता है.
फिल्म देखने के लिए चन्दा
हाँ मैं फिल्म की बात कर रहा था. सन 1968 से लेकर 1972 के दौरान मैंने पार्कों और संस्थानों में निशुल्क दिखाई जाने वाली फिल्मों के अलावा सिनेमाहालों में जी भरकर फ़िल्मी देखीं। फिल्म देखने के लिए चन्दा एकत्र करता था.
व्यस्तता के कारण अपने बचपन के दोस्तों के साथ संवाद कम हो गया था 
सन 19  अक्टूबर 1972  से लेकर सन 15 जनवरी 1980 तक मेरा मोहल्ले में मित्रों के साथ बातचीत /संवाद कम हो गया. विस्तृत चर्चा नहीं कर पाटा था. क्योंकि नौकरी और स्कूल में नये मित्र मिले और  सन 1972 में रेलवे में नौकरी लगने के बाद ज्यादातर मेरे मित्र मेरी आयु से अधिक होते थे. कवितायें लिखने और सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में जाने लगा था जिससे मुझे नये-नये सपने दिखाई देते थे. उन सपनों में बहुत तो कल्पनाओं तक ही सिमटकर रह गये थे. जैसे जेब में पैसे कम हों तो महँगा खिलौना नहीं खरीदा जा सकता है.
हम पसंद तो किसी को कर सकते हैं पर उसे छू नहीं सकते। बहुत बार हम उसे कह भी नहीं सकते। अपनी उनकी मर्यादायें होती हैं.  जीवन के जो मापदण्ड होते हैं वे हमको संस्कार में घर से, पड़ोसियों से या फिर पढ़ और लिखकर आ जाते हैं. 
श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा है कि उन्होंने अनेक पक्षियों और पशुओं से भी सीखा है.
 जब टेलीफिल्म में अभिनय किया और फिल्म का 'क ख ग' सीखा था.
 सन 1985 में मैं गर्मी के ढाई महीनों तक राजेंद्र अवस्थी जी के नेतृत्व में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' (उस समय का मशहूर साप्ताहिक पत्र) में हिंदी पत्रकारिता के गुर सीख रहा था और वहाँ पत्रकार के रूप में कार्य किया  था.
उस समय नार्वे में मैं सन 1984 से 1986 तक प्रोफेशनल पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. राजेंद्र अवस्थी जी ने मुझे तीन महीन तक अपने घर पर रखा और उनके परिवार ने बहुत स्नेह व् सहयोग दिया था.
1985 में राजेन्द्र अवस्थी जी की कहानी पर उनके पुत्र शिवशंकर अवस्थी जी ने दिल्ली दूरदर्शन के लिए परिवार नियोजन पर आधारित फिल्म बनायी थी जिसका शीर्षक था 'आठवाँ चाचा' जिसमें मैंने निर्दयी दुकानदार का अभिनय किया था. साथ ही व्यवहारशील शिवशंकर जी के साथ रहकर फिल्म निर्माण और व्यवस्था के बारे में सीखा।
ब्रिटेन में कवि सम्मेलनों से जुड़ा डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी की प्रेरणा से 
 लन्दन में भारतीय हाईकमीशन में डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी एक विद्वान विधिवेता और हाईकमिश्नर थे. उन्होंने मुझे ओस्लो में भारतीय दूतावास के जरिये कवि सम्मेलनों में आमंत्रित करना शुरू किया।  चूँकि नार्वे से हिंदी में साहित्यिक- सांस्कृतिक पत्रिका निकालता था अतः उनके स्नेह का भाजन बना. 
लन्दन और मैनचेस्टर में आयोजित कवि  सम्मेलनों में मुझे भारतीय फिल्मों से जुड़े बड़े कलाकारों और गीतकारों से मिलने और साथ बैठने और मंच साझा करने का अवसर मिला।  यहाँ गोपालदास नीरज, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी, सईद जाफरी, गजल गायक जगजीत सिंह, सरोद वादक अजमद अली खान, फ़िल्मी दुनिया के सबसे अधिक लोकप्रिय  कलाकार दिलीप कुमार, सायरा बानो और महानायक अमिताभ बच्चन, भाई अजिताभ, सरिता सबरवाल, डॉ लता पाठक, डॉ रणजीत सुमरा, पंडित रवि शर्मा और अन्य लोगों से मिलना विचार विमर्श करना हुआ. एशिया टी वी और जी टी वी पर मेरे साक्षात्कार शुरू में हुए और कविता पाठ भी. वे दिन भी क्या दिन थे. 
मैंने मुम्बई के चक्कर भी लगाये फिल्म से अधिक जुड़ने को लेकर।  मजरूह सुल्तानपुरी और राजकमल स्टूडियो के किरण शांताराम से परिचय बढ़ा और उनके पास अनेक बार गया. राजकमल स्टूडियो पहले दादर के पास ही था जहाँ मैं अपनी श्रीमती सावित्री बुआ जी को लेकर गया था जो पास में ही रहती थीं. मजरूह सुल्तानपुरीजी के घर एक बार फुफेरे भाई मनीष के साथ गया था
आदरणीय पुष्पा भारती जी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में जो धर्मवीर भारती जी की याद में था एक यादगार कार्यक्रम था. वहां जावेद अख्तर जी से और शबाना आजमी जी से दुबारा मिला (पहले नार्वे में मिल चुका था). वहां अमरीश पुरी भारती जी की पुस्तक को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया था. और डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी जी की के साथ उसी मंच पर मुझे पुस्तक के लोकार्पण करने का श्रेय दिया गया जो कभी न भूलने वाला क्षण था.
बाद में डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने नार्वे से प्रकाशित पत्रिका स्पाइल-दर्पण के बीस वर्ष पूरे होने पर नौ वर्ष पूर्व अपने दिल्ली निवास पर पार्टी की थी.  उनका बहुत बहुत आभार। वह आज दुनिया में नहीं हैं उनसे अंतिम मुलाक़ात अमेरिका में हुई थी. सिंघवी जी की सांस्कृतिक सेवा का कोई मुकाबला नहीं है. उनका जैसा मुझे कोई नहीं मिला।
पहली टेली फिल्म तलाश बनायी सन 1996 में
सन 1996 में पहली टेलीफिल्म तलाश का निर्माण हमने किया था. जिसमें मैंने लेखन, अभिनय और निर्देशन किया था. इस फिल्म में नायिका का अभिनय और सफल मानद निर्देशन डॉ रेखा व्यास ने किया था.
यह फिल्म नार्वे और कोपेनहेगन, डेनमार्क के टी वी पर भी प्रदर्शित हुई थी.
इस फिल्म के नार्वे के ओस्लो टी वी पर प्रसारण से अनेक प्रतिक्रया मिली। नार्वेजीय फिल्म इंस्टीट्यूट के हाल में फिल्म दिखाई गयी. और मुझे नार्वेजीय फिल्म एशोसियशन में सदस्य्ता मिली।

मेरी पहली नार्वेजीय फिल्म 'राइसेन तिल कनाडा' (कनाडा की सैर)
फिल्म के शीर्षक से लग रहा है कि इसका सम्बन्ध देश कनाडा से होगा पर ऐसा नहीं है. यह एक रोचक युवाओं के लिए फिल्म है. इसकी कथा नाटकीय है. इसकी सारी सूटिंग ओस्लो में हुई है. इस फिल्म में मेरे बड़े बेटे अनुराग शुक्ल ने फोटोग्राफी और सम्पादन किया है. 
इसकी मुख्य भूमिका नार्वे में थिएटर में शिक्षा प्राप्त सिराज खान, सोफिया कौशल ने किया है. और लेखन, निर्देशन और सह अभिनेता के रूप में मेरा सहयोग रहा है.  
लखनऊ के आनंद शर्मा से जुड़ा और अनेक लघु यू-ट्यूब फ़िल्में बनीं।
लखनऊ के फिलामाचार्य और नाटकों के निर्देशक से जबसे जुड़ा तो मेरे अंदर नाटककार और लघु फिल्मों की तरफ रुझान बढ़ा. चौराहा, गुमराह और इंटरव्यू इसमें मुख्य हैं. इंटरव्यू को यू ट्यूब पर लोग दस लाख से अधिक लोग देख चुके हैं.
मुम्बई और जालंधर में अनेक टीवी और फिल्म कलाकारों से मुलाक़ात हुई
अपनी गत  माह साहित्यिक यात्रा के दौरान मेरी मुलाक़ात अनेक टीवी और फिल्म कलाकारों से हुई और घंटों साथ बिताये और विचार विमर्श हुआ. 
भारत फिल्मों की दुनिया में एक सागर की तरह है. यहाँ के लोग बहुत प्रतिभाशाली हैं पर अभी भी हर व्यक्ति शिक्षित और जागरूक नहीं है पर यह हमारा कर्तव्य है कि भारत में शिक्षा के क्षेत्र में योगदान करें वह भी बिना सरकारी सहायता के. 
यह मत सोचें कि देश ने आपके लिए क्या किया है यह सोचें कि आपने देश के लिया क्या किया है.  
 फिर मिलेंगे नए विचारों और नयी कहानियों के साथ. धन्यवाद। 
 

 






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