शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

राजेंद्र अवस्थी जी ने कभी भूत नहीं देखा-शरद आलोक

राजेंद्र अवस्थी का जाना हिंदी पत्रकारिता के लिए क्षति


मध्य प्रदेश के जबलपुर में 25 जवनरी 1930 को पैदा हुए राजेंद्र अवस्थी ने बुधवार ३० दिसंबर को दिल्ली के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया था। ५ महीने पहले उनका ह्रदय का आपरेशन हुआ था।
वह अपने पीछे तीन बेटे और दो पुत्रियाँ छोड़ गए हैं। उनके बड़ा बेटा मुन्ना हिंदुस्तान टाइम्स में कार्यरत है और मझला बेटा शिवशंकर अवस्थी डी ए वी स्नाकोत्तर महाविद्द्यालय में राजनीति शास्त्र में प्रोफ़ेसर, कवि और फ़िल्मकार है।
राजेन्द्र अवस्थी जी ने मंडला में प्रारंभिक शिक्षा व जबलपुर में उच्च शिक्षा अर्जित की। शिक्षा के दौरान ही साहित्य व पत्रकारिता संसार से इतना गहरा जुड़ाव हुआ कि अंतत: इसी क्षेत्र की ऊँचाइयों को उन्होंने स्पर्श किया। पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र के मार्गदर्शन में पत्रकारिता की शुरूआत की। वे नवभारत में सहायक संपादक भी रहे। उन्होंने अपनी कलात्मक सोच और चमत्कारिक लेखनी से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हासिल की।
राजेन्द्र अवस्थी ने कादंबिनी के 'कालचिंतन' कॉलम के माध्यम से अपना एक खास पाठक वर्ग तैयार किया था।
3० दिसंबर को, वर्ष के अंत में कादम्बिनी के चर्चित संपादक पत्रकारिता का एक सितारा राजेंद्र अवस्थी हमेशा के लिए दुनिया से विदा हो गया। उनकी जगह कोई नहीं ले सकता। उनकी तेरहवीं पर मैं उनके घर गया था पर जंगपुरा एक्सटेंशन में उनके निवास पर ताला लगा हुआ था।

भारतीय दिवस में हम दोनों के मित्र डॉ मोहन कान्त गौतम के साथ उनकी यादें ताज़ा कीं।
जब लखनऊ विश्वविद्यालय में अपने सम्मान और कवि सम्मलेन समारोह में बैठा था तब लखनऊ के लेखक और कादम्बिनी के पूर्व उप-संपादक श्रीराम शुक्ल ने बताया कि राजेंद्र अवस्थी जी नहीं रहे। मुझे यह समाचार सुनकर बहुत दुःख हुआ। उनके साथ मेरे लेखक-संपादक के नाते तो सम्बन्ध तो थे ही पर उनके परिवार के साथ भी मेरे सम्बन्ध रहे हैं। उनके बड़े बेटे मुन्ना, मझिले बेटे मुन्नू और बेटी कोको से एक समय काफी बातचीत हुआ करती थी। वह अपने छोटे बेटे के साथ जंगपुरा एक्सटेंसन, नई दिल्ली में रहते थे।
गंगा प्रसाद 'विमल' और डॉ सुरेश ढींगरा उनके अच्छे मित्रों में से थे। सरोजनी प्रीतम और डॉ सुधा पाण्डेय के साथ उनके लेखकीय सम्बन्ध थे।
वह दो बार नार्वे भी आ चुके हैं हमारे कार्यक्रमों में एक बार भारतीय पत्रकारिता पर आयोजित सेमिनार में और दूसरी बार अंतर्राष्ट्रीय लेखक सेमिनार और सांस्कृतिक महोत्सव में। उनके साथ पहली बार डॉ सत्य भूषण वर्मा और दूसरी बार डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी आये थे।
मारीशस और लन्दन में वह हिंदी सम्मेलनों में भी मिले और मेरे कमरे में जमी साहित्यकारों की महफ़िलों में भी भाग लिया था। लन्दन में तो कमलेश्वर जी, विजय प्रकाश बेरी जी भी थे।
अवस्थी जी एक रंगीन मिजाज के, उदार पर लेखन में सूचनाओं देने में कंजूस थे। यदि गुटबंदी वाली राजनीति से अवस्थी जी अलग होते तो बात ही कुछ और होती। निजी झगड़ों को साहित्यिक मंच पर नहीं लाना चाहिए।
साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादम्बिनी के कार्यालय में
उनके साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादम्बिनी के कार्यालय में सब मिलाकर छे महीने साथ कार्य किया या यह कहूं कि पत्रकारिता का अभ्यास किया तो सही होगा। वह मुझसे इतना प्रभावित थे कि उन्होंने मेरे लिए साप्ताहिक हिंदुस्तान में काम दिलाने के लिए कोशिश भी की थी। वह बहुत उदार थे अपने घर पर मुझे अनेकों बार रुकाया एक बार तो मैं उनके घर पर तीन महीने रह चुका हूँ । मेरे लिए उनका परिवार शिष्ट और उदार रहा। घर- बाहर खाने पीने में उनका कोई सानी नहीं था।
उनका जन्म जबलपुर के उपनगरीय क्षेत्र गढा के ज्योतिनगर मोहल्ले में हुआ था। उन्होंने मंडला में प्रारंभिक शिक्षा व जबलपुर में उच्च शिक्षा अर्जित की। शिक्षा के दौरान ही साहित्य व पत्रकारिता संसार से इतना गहरा जुड़ाव हुआ कि अंतत: इसी क्षेत्र की ऊँचाइयों को उन्होंने स्पर्श किया। पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र के मार्गदर्शन में पत्रकारिता की शुरूआत की। वे नवभारत में सहायक संपादक भी रहे। उन्होंने अपनी कलात्मक सोच और चमत्कारिक लेखनी से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हासिल की। प्रभाष जोशी के बाद उनके जाने से कर्मठ संपादकों के आकाश का एक और भव्य सितारा अस्त हो गया।
बड़े साहित्यकारों से परिचय
उनके साथ रहकर मुझे बहुत बड़े-बड़े और वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला था। अज्ञेय जी, रघुवीर सहाय , अश्क जी, भिक्खु जी, गंगा प्रसाद 'विमल', बालेश्वर अग्रवाल, ब्रिज नारायण अग्रवाल, दुर्गाप्रसाद शुक्ल, मंथान्नाथ गुप्त, जय प्रकाश भारती और अन्य से कराया था।
अवस्थी जी के साथ ही मुझे हाथ मिलाकर राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन से पहली बार मिलने का अवसर मिला था। दो बार भारतीय संपादक सम्मलेन में भाग लेने का अवसर उन्हीं की कृपा से मिला था।
पहली फिल्म में अभिनय
पहली फिल्म जिसमें मुझे एक खलनायक की भूमिका करने अवसर मिला था जिसे शिव शंकर अवस्थी जी ने निर्देशित किया था वह राजेन्द्र अवस्थी जी की कहानी पर आधारित थी जो दूरदर्शन के लिए बनी थी। वह मेरे लिए एक यादगार समय था। अब तक तो मेरी चार कथाओं पर टेलीफिल्में बन चुकी हैं।
अवस्थी जी ने कभी भूत नहीं देखा था
राजेंद्र अवस्थी कादम्बिनी में तंत्र, ज्योतिषी और भूत-प्रेत की कथाओं का विशेषांक निकलते थे जो बहुत पसंद किये जाते थे। हालाँकि बुद्धिजीवी भूत-प्रेत पर विश्वास नहीं करते हैं। पाठकवर्ग अन्धविश्वासी था। स्वयं अवस्थी जी भूत प्रेत पर विश्वास नहीं करते थे पर कहते थे यदि कोई कहानी भूत प्रेत पर हो तो छापने के लिए दो। चाहे कितना कठिन विषय या नया विषय हो वह छापने के तरीके निकालने में माहिर थे। उन्हें जो कहानी पसंद आ जाए चाहे वह अन्य जगह छप चुकी हो अच्छे संपादक की तरह प्रकाशित कर देते थे। 'आसमान छोटा है' कहानी 'सारिका' के बाद कादम्बिनी में छपी थी। बड़े-बड़े साहित्यकार कादम्बिनी पढ़ते थे।
अनेक लेखकों से उनके मतभेद भी थे। आथर्स गिल्ड आफ इण्डिया के वह दशकों पदाधिकारी रहे हैं।
उनके पुत्र शिवशंकर अवस्थी और बहू जो लखनऊ की गीतकार माधुरी बाजपेई की पुत्री हैं कवितायें लिखती हैं। हिमांशु जोशी की तरह अवस्थी जी परिवारवाद और पहाढवाद का सहारा नहीं लेते थे । मेरी तरह उनके भी पूरे भारत से हर धर्म और प्रान्त के मित्र रहे हैं।
राजेंद्र अवस्थी कभी मुड़कर नहीं देखते थे और अपने मालिक का बहुत सम्मान करते थे।
उन्होंने एक बार जबलपुर से मुंबई व दिल्ली का रुख करने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सरिता, नंदन और कादम्बनी जैसी चर्चित पत्रिकाओं का संपादन बखूबी संभाला। उनका कॉलम 'कालचिंतन' पाठकों में बेहद लोकप्रिय था। संघ लोक सेवा आयोग सहित कई प्रतिष्ठित संस्थाओं के सदस्य रहे। उन्होंने अनेक उपन्यासों, कहानियों एवं कविताओं की रचना की। वह ऑथर गिल्ड आफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे। दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी ने उन्हें 1997-98 में साहित्यिक कृति सम्मान से नवाजा था। उनके उपन्यासों में सूरज-किरण की छाँव, जंगल के फूल, जान कितनी आँखें, बीमार शहर, अकेली आवाज और मछली बाजार शामिल हैं। मकडी के जाले, दो जोडी आँखें, मेरी प्रिय कहानियाँ और उतरते ज्वार की सीपियाँ, एक औरत से इंटरव्यू आदि कथा साहित्य है।
उन्होंने कई यात्रा वृतांत भी लिखे हैं।
कुछ भूले बिसरे क्षण
शायद यह सन् १९८५-८६ की घटना है। हिंदी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी जी की पुस्तक छापने वाली थी।
गोपाल चतुर्वेदी जी आजकल लखनऊ में संस्कृति संसथान उत्तर प्रदेश में अध्यक्ष हैं। किसी पांच सितारा होटल में पार्टी दी गयी थी। रात का समय था। हम सभी लोग साहित्यिक बातचीत में सराबोर थे। वहाँ से निकलने में रात काफी हो गयी थी। पार्टी में अवस्थी जी के कुछ ज्यादा पैक लग गए थे। रास्ते में एक जगह कार अँधेरे में दिखाई नहीं पड़ा और कार एक गाय से टकरा गयी थी। गाय और हम लोग बाल-बाल बच गए थे।
दूसरी घटना सन् १९९० की मुंबई की है। मुझे अवस्थी जी अंतर्राष्ट्रीय आयुर्वेदिक सम्मलेन में मारीशस ले गए थे। दिल्ली से हम लोग मुंबई पहुंचे। शाम को हम सभी का सार्वजनिक सम्मान होने के बाद बांद्रा में एक ऐसे डांस बार में चले गए जिसका नाम था सीजर्स। हमारे कैमरे जमा करा लिए गए थे। वहां जाकर देखते ही हैरान रह गया कम आयु से लेकर युवा लड़कियां कम कपड़ों में बहुत संख्या में नृत्य कर रही थीं। बाद में पता चला की होटल- बार एक स्मगलर का है जिसका क़त्ल हो गया और वह होटल बंद हो गया।
उनको मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

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