कल १६ मई को अपनी बेटी संगीता और दामाद रोई थेरये के साथ जब आइद्स्वोल नगर से होकर गुजरा थातब मुझे बहुत मनभावन लगा। और लगा जैसे कि मेरे परिवार कि जड़ें भारत से आकर नार्वे में फाइल गयी हैं। (अपने दादा जी, स्व आदरणीय मन्ना लाल शुक्ल की याद आयी जो अपनी संस्कृति को आदर और त्याग के साथ ईमानदारी से पोषित करने के पक्षधर थे। वह विचारों से समाजवादी और कार्यों से कर्मयोगी और नार्वे की श्रमिक पार्टी (अरबाइदर पार्टी) के सिद्धांतों की तरह जमीन से जुड़े रहे। घर से जाति-पात को समाप्त करने की असफल कोशिश की थी पर सफल नहीं रहे थे। पर वह किसी कार्य को छोटा नहीं समझते थे। जब वह लेबर कालोनी ऐशबाग के ब्लाक संख्या ४१ और घर संख्या ३ और चार में रहते थे तो वे अपनी घर की नालियाँ और बाहर की नालियाँ स्वयं साफ़ करते थे जबकि बहुत से लोग उन्हें इस बात के लिए मना करते थे। नालियों में दो अन्य परिवारों और धर्मों के अनुयाइयों के घर की नालियाँ मिलती थीं और मेरे बाबा शाकाहारी थे और उत्तर रेलवे मेंस यूनियन में श्रमिक नेता भी। जिसकी चर्चा को विराम लेकर १७ मई की बात आगे बढ़ता हूँ। )
आइद्स्वोल यह नगर ऐतिहासिक है। १७ मई १८१४ को इसी नगर आइद्स्वोल में नार्वे का संविधान बना था। इस संविधान के तहत यह घोषणा की गयी थी कि भविष्य में नार्वे एक अलग स्वतन्त्र राष्ट्र का अस्तित्व रखेगा।
आज अपने घर के पास वाइतवेत स्कूल जहाँ मेरी निकीता और अलक्सन्देर अरुण भी जाते हैं। कुछ चित्र प्रस्तुत है उनके स्कूल के जहाँ प्रातः राष्ट्रीय दिवस पर धवाजरोहन हुआ मार्चपास्ट निकाला और वाइतवेत मैट्रो स्टेशन पर से मैट्रो लेकर बीच नगर में राजा के प्रसाद के सामने मार्चपास्ट करने गया। जहाँ बच्चों, बैंड बाजों और ध्वजों को लेकर राज परिवार को सलामी देते हुए हुर्रा, हुर्रा शब्द का उच्चारण करते हुए राजमहल के सामने से निकालते हैं और बाद में आइसक्रीम और चाकलेट आदि खाते हैं मौज मनाते हैं बच्चे और बड़े।
मैंने परसों १७ मई पर एक कविता लिखी जिसे आज एक कार्यक्रम में पढ़ना है जो नार्वेजीय भाषा में लिखी है।
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