गुरुवार, 20 मई 2010

नार्वे (विदेशों) में हिंदी का विस्तार- शरद आलोक

देवनागरी में ही हिंदी का विस्तार संभव - शरद आलोक
नार्वे में गत २३ वर्षों से प्रकाशित (पांच वर्षों से एक मात्र पत्रिका) 'स्पाइल-दर्पण'

२००७ से प्रकाशित होने वाली अनियमित हिंदी पत्रिका 'वैश्विका'

हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है और धीरे -धीरे विस्तार पा रही है। बोलियों के रूप में हिंदी का विकास होने में कुछ यूरोपीय देशों में कुछ समय जरूर लगे पर समूह और प्रवासी समाज में आज हिंदी का वर्चस्व धीरे-धीरे बढ़ रहा है। मेरा मानना है कि विदेशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार को सामयिक, सेकुलर और गैरराजनैतिक बनाना जरूरी है यहाँ बातचीत की जा रही है हिंदी सिखाने वाली संस्थाओं के बारे में। एक बात और भी जरूरी है जो पूर्व कही बात से विपरीत भले ही लगे कि यह भी जरूरी है प्रवासियों के लिए कि वह अपनी भाषा और संस्कृति ( संगीत, नृत्य, कविता, फिल्म और नाटक) आदि के विकास को अधिक बल देने के लिए जरूरी है कि राजनैतिक भागीदारी और मिशन रूप में भाषा (हिंदी) का प्रचार किया जाए। नयी पीढी को, पुरानी पीढी के साथ-साथ युवा पीढी से जोड़ते हुए
तन-मन- धन से सेवा करनी बहुत जरूरी है।
नार्वे में हिंदी पत्रिकाएं
नार्वे में हिंदी कि मात्र दो पत्रिकाएं 'स्पाइल'- दर्पण और वैश्विका पिछले पांच वर्षों से छप रही है। एक पत्रिका पंजाबी और उर्दू में निकलती है और उसका नाम है प्रवासी। इसके अलावा कोई भी पत्रिका हिंदी या पंजाबी में नहीं छपती है। वैश्विका अनियमित है और स्पाइल-दर्पण नियमित २३ वर्षों से छप रही है।
नार्वे से हिंदी में दो ब्लाग भी लिखे जाते हैं और एक नेट पत्रिका भी है।
नार्वे में हिंदी शिक्षा

नार्वे में हिंदी प्रचार-प्रसार में भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम और हिंदी लेखन मंच में सुरेशचन्द्र शुक्ल , हिंदी स्कूल संगीता सीमोनसेन के नेतृत्व में, ओस्लो विश्वविद्यालय जिसमें क्लाउस जोलर प्रोफ़ेसर और अन्य स्कूलों में शिक्षकगण हिंदी की शिक्षा में अपना योगदान दे रहे हैं।
हिंदी कि धार्मिक शिक्षा देने में सनातन मंदिर स्लेम्मेस्ताद, हिन्दू सनातन मंदिर द्रामेन और वी एच पी का नाम लिया जा सकता है।
स्कैंडिनेवियाई देशों में हाईस्कूल और माध्यमिक स्कूलों में हिंदी को अतिरिक्त विषय लेने पर अंको का योग बढ़ जाता है और हिंदी में परीक्षा देने वाले छात्रों को फायदा होता है। कमी है तो हिंदी की निस्वार्थ सेवा करने की, स्वयंसेवियों की कमी और हिंदी लेखकों, विद्वानों की हिंदी के प्रचार -प्रसार में रूचि न लेना भी एक कारण है कि हिंदी आगे नहीं बढ़ पा रही है। क्योंकि हिंदी प्रचारकों और शिक्षकों को यहाँ की भी मूल भाषा में प्रवीण होना जरूरी है।
पाठक से ज्यादा लेखक बढ़ रहे हैं?
ब्रिटेन में यहाँ की सरकार की नीति दूसरी भाषाओँ (हिंदी, पंजाबी) को प्राथमिकता देने की नहीं है। क्योंकि भारतीय लोग हिंदी सीखने की कक्षाएं नहीं चलाते। मंदिर और अन्य स्वयं सेवी संस्थाएं हिंदी सिखाएं तो इन्हें सरकार से संस्कृति और सामजिक कार्यों के माध्यम से आर्थिक मदद भी मिल सकती है। ब्रिटेन, मारीशस में हिंदी के नए पाठक कम बन रहे हैं और लेखक अनेक । मारीशस में हिंदी की कुछ पत्रिकाएं भी बिना भारत सरकार के आर्थिक सहयोग से नहीं छप पातीं। संपादक के ज्ञान को क्या कहें कुछ पत्रिकाएं तो दिल्ली से विदेशों में हिंदी के बारे में लेख लिखाकर छपाती हैं और इस विदेशों में प्रवासी साहित्य पर लिखे अधिकांश लेखों की विश्वसनीयता और संपादकों की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है।
देवनागरी का प्रचार-प्रसार मिशन भाव से जरूरी
यूरोप में हिंदी के प्रचार प्रसार में युवा वर्ग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उन्हें प्रोफेशनल कार्यक्रमों में ( प्रवासी, हिंदी, संगीत, नाटक, बालिवुड फिल्म फेस्टिवल ) में कम अच्छी हिंदी होने के उपरांत भी हमको उस देश में रहने वाले बच्चों और युवाओं को प्रस्तोता, स्वागताध्यक्ष और संयोजक बनाना चाहिए। जिन्होंने हिंदी सीखी है बेशक वह प्रवीण न हों और भारतीय फिल्म कलाकारों से हिंदी में सवाल पूछे जाने , ताकि हिंदी में गर्व करना सीख सकें वे फिल्म कलाकार जो हिंदी फिल्मों से तो रोटी खाते हैं और अंग्रेजी के गुण गाते हैं। भारत में भी मध्यम वर्ग और कला फिल्मों में भी केवल ऐसे कलाकारों को ही लेना चाहिए जिन्हें हिंदी अच्छी आती हो केवल रंग को देखकर, पैसे के मायामोह में आकर भाषा का बहिष्कार ही अपनी भाषा के प्रति सौतेलापन हमारी पौरुषता को दर्शाता है और दूरदृष्टि कि हम दूसरे के पाले में गेंद फेंक रहे हैं जो हमारी भाषा को दबाकर अपनी भाषा ठोकना चाहते हैं।
हिंदी के बहाने व्यापार बनाम अपने घर में सौतेली
भारत में जब तक हिंदी को सभी प्रतियोगिताओं (पी सी एस, आई ए एस, चिकित्सा, तकनीकी परीक्षाओं में अनिवार्य माध्यम नहीं बनाया जाएगा और उसकी अनिवार्यता को शिक्षा के माध्यम से ग्राह्य और लोकप्रिय नहीं बनाया जाएगा तब तक आशा करने के स्थान पर सभी को स्वयं हिंदी को जगह दिलाने के लिए अपना पसीना, धन और समय लगाना होगा। अपनी भाषा से जैसा व्योहार करेंगे वैसे ही हमको भी वैसी ही इज्जत मिलेगी।
विदेशों में हिंदी का प्रचार प्रसार पर भारतीय सरकार और पार्लियामेंट भी ध्यान दे
देवनागरी को विदेशों में प्रचार प्रसार के लिए हमारे राजदूतावास, व्यापार संगठन और इकाइयां बहुत कुछ कर सकते हैं। वे अपने संस्थानों में और भारत आने वालों को हिंदी में लिखना पढना सिखाएं और उच्च कोटि के पर्चे, कार्ड, कलेंडर, सी डी आदि हिंदी में मुहैया कराएँ और भारत में उन संस्थानों में भी जाने को प्रोत्साहित करें जो विदेशियों और विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों की नयी पीढी को उनके कम हिंदी ज्ञान को भी स्वीकार करते हुए उन्हें गर्व करा सकें और विश्वास करा सकें की हिंदी बोलना, लिखना और पढना आना गर्व करने वाली बात है।
भारतीय पार्लियामेंट में सभी नेताओं को हिंदी में बोलने और अपनी बात को रखने/प्रस्तुत करने में सहयोग देने के लिए हिंदी के उच्चस्तरीय और लचीले पाठ्यक्रम चलाये जाएं।
भारत के सभी विश्वविद्यालयों में हिंदी के विभाग हों और भारतीय दूतावासों में कार्य करने वालों को हिंदी जाननी भी अनिवार्य हो।

सूचनापट, विजिटिंग कार्ड और पत्र अधिक से अधिक हिंदी में ही लिखे जाएं।
हिंदी आपकी अपनी है, अपनाकर तो देखिये। यह भी सोचिये की आपने हिंदी के लिए क्या किया है और क्या कर सकते हैं।
-शरद आलोक, ओस्लो, नार्वे

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