मंदिरा बेदी ने एक ओंकार से धार्मिक आस्था का सम्मान किया है-शरद आलोक
भारत कि विश्व प्रसिद्ध प्रस्तोता, माडेल और कलाकार मंदिरा बेदी ने अपनी पीठ पर 'एक ओंकार' लिखकर ईश्वर में अपनी निष्ठां व्यक्त की है, पता नहीं इससे लोगों को परेशानी क्यों है? एक ओंकार का तात्पर्य ईश्वर एक है। मनुष्य का शरीर सबसे कीमती है। मानव ही सब जीवों में श्रेष्ठ है। विदेशों में पश्चिमी यूरोप और अमरीका, कनाडा में लोग अपनी राष्ट्रीय झंडे को रुमाल, नैपकिन, कपड़ों, आदि में भी करते हैं पर भाव प्रेम और श्रद्धा का रहता है। भारत में भी हम अपने झंडे को अपने जन्मदिन, शादी, और राष्ट्रीय पर्वों पर अपने घरों पर फहरा सकते हैं, पर इसका सम्मान श्रद्धा के साथ करना जरूरी है।
आज आधुनिक युग में धार्मिक संगठनों को अपने धार्मिक सन्देश को बढ़ाना चाहिए न कि कट्टरता की बातों से ध्यानाकर्षण करना चाहिए। रक्तदान, समाजसेवा, स्कूल और अस्पताल निर्माण करके धर्म की तरफ ध्यान दिलाना चाहिए न की सस्ती लोकप्रियता के लिए बुद्धिजीवियों और प्रसिद्ध लोगों
को बेमतलब निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए।
नार्वे की बात है एक उदहारण दे रहा हूँ। मेरे संपर्क में नार्वे में रहने वाले अधिकांश भारतीय हैं। जिसमें सिख, हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई धर्म मानने वाले और मानवतावादी लोग हैं। मैं राजनीति में भी सक्रिय रहा हूँ और भारतीयों के अलावा दूसरे प्रवासियों: श्री लंका, चिली, पाकिस्तान और नार्वेवासी की राजनैतिक, साहित्यिक और सामाजिक सेवा की है और कर रहा हूँ। अपने फायदे के लिए मैंने धर्म का साथ नहीं लिया मैं भारत का हूँ और नार्वे में वास कर रहा हूँ।
मैं अपने फायदे के लिए कभी भी धार्मिक और भाषाई तर्क देकर वोट नहीं लेता। न ही किसी की निंदा करके। बल्कि मुझे स्वयं अनेक धार्मिक संगठनों के लोगों ने कहा किआपको लोगों ने उतने अतिरिक्त वोट नहीं दिए जितने के लिए आपने कार्य किया है । मैंने उनसे कहा कि 'धन्यवाद, यदि लोगों को मेरी जरूरत होगी तो लोग वोट देंगे।'
नार्वे में हम लोगों को जो राजनैतिक पार्टियों से प्रतिनिधित्व मिलता है उसमें हमारे भारतीय होने को सबसे पहले देखा जाता है, फिर कार्य, योग्यता और तालमेल आदि। धर्म को नहीं देखा जाता। यदि यह पता चल जाए राजनैतिक पार्टी को कि एक प्रतिनिधि कट्टर है तो उसे ज्यादा समय तक नार्वे में सहयोग नहीं मिल सकता। और न ही उसे सहयोग मिलना चाहिए।
हम भारतीयों को सेकुलर राजनीति भारत से मिली है जिसके लिए हम सभी को गर्व है। नार्वे में भी हमारे साथ धर्म और अन्य विचारों के लिए भेदभाव नहीं होता है, जो है वह सामान्य स्थिति और स्वस्थ वातावरण है।
हम सभी यह देखें कि क्या कोई धर्म के नाम पर केवल अपना फायदा करके पूरे समाज को दूषित कर रहा है या कट्टरता को बढावा दे रहा है?
मेरी नजर में मंदिरा बेदी के पीछे पड़े रहना, उन्हें परेशान करना किसी भारतीय के लिए गौरव की बात नहीं है। वह पूरे विश्व में एक जानी-मानी प्रस्तोता हैं जिस पर सभी को गर्व हो सकता है।
1 टिप्पणी:
जो लोग समाज को रास्ता दिखाने का दावा करते हैं उन्हे अपने कार्यकलापों मे अतिवाद से बचना चाहिए...लेकिन आज स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है. आज ये लोग धर्म के मूल तत्व को भूलकर इतने धर्माँध हो चुके हैं कि उनके लिए धर्म सिर्फ प्रतीकों में सिमटकर रह गया है...ओर आस्था इतनी जर्जर हो चुकी है कि मानो कच्ची मिट्टी की दीवार..जरा सी ठेस लगी ओर ढह गई...
एक टिप्पणी भेजें